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________________ डॉ. हीरालाल जैन : ग्रंथ परिचय 51 हमारे सामने स्पष्ट हो चुका है। प्रस्तुत रचना में भी वही टकसाली भाषा का स्वरूप व काव्य शैली पायी जाती है। चरित काव्य या कथा का विभाजन संधि में और संधि का विभाजन कड़वकों में किया जाता है। अंत में एक घत्ता छंद होता है। प्रसंगानुसार विविध छंदों का उपयोग किया जाता है जिसका सामान्य लक्षण तुकबन्दी है। यही इसे संस्कृत-प्राकृत से अलग करता है। प्रस्तुत रचना में छंदों का विपुल वैचित्र्य है। लगभग सौ प्रकार के छंदों में विषम पदी छंद विशेष उल्लेखनीय हैं। मात्रिक और वर्णिक छंदों का अच्छा व्यवहार इस रचना में देखने को मिलता है। यह काव्य विशेष रूप से छंद और अलंकार प्रधान रचना है। यहां कवि की कल्पना और शब्दचातुरी का परिचय मिलता है। संधि चार में वर्णित स्त्री जाति के लक्षणों और संधि नौ में युद्ध विस्तार से वर्णन कवि के पांडित्य और कला-पटुता का उत्तम प्रमाण है। यह प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली से 1970ई. में प्रकाशित तथा सम्प्रति उपलब्ध है। दोहा काव्य सावयधम्मदोहा के रचयिता देवसेन हैं। इस कृति की रचना सन् 933 में मालवा प्रदेश की धारा नगरी में हुई है तथा यह ग्रंथ दोहा छंद का अत्यंत प्राचीन उदाहरण है। इस ग्रंथ का विषय श्रावकों का धर्म और आचार है। यह ग्रंथ धार्मिक उपदेश और सूक्ति की दृष्टि से तो सुंदर है ही पर उसका सर्वाधिक महत्व उसकी भाषा में है। प्राकृत और अपभ्रंश भाषायें जन सामान्य की भाषाएं रही हैं इसीलिये वे अपने-अपने समय में संस्कृत से भी मधुर और प्रिय गिनी जाती थीं। इसीलिये विद्यापति ने कहा है- "देसिलवअना सब जन मिट्ठा तैं तैसन जम्पओ अवहट्ठा" डॉ. हीरालाल जैन ने सावयधम्म की अपभ्रंश भाषा की मिठास को ही प्रकट नहीं किया है उसकी व्याकरणिक विवेचना कर भाषा के अनुशासित चरित्र को भी उजागर किया है। इस कृति के लेखक का नाम भ्रमोत्पादक रहा है। डॉ. जैन ने अनेक प्रतिलिपियों के अध्ययन समकालीन दोहाकाव्यों की विवीक्षा के बाद प्रामाणिक रूप से लेखक की वास्तविकता की जानकारी प्रस्तुत की है। इस ग्रंथ का सर्वप्रथम प्रकाशन हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, मुंबई द्वारा 1939 ई. के पूर्व ही किया गया था। पाहुड दोहा सावयधम्मदोहा और पाहुड दोहा में विषय की दृष्टि से उल्लेखनीय भेद यह है कि पहला गृहस्थों के लिए लिखा गया है और दूसरा ग्रंथ जोगियों के लिए। इस ग्रंथ के कर्ता मुनि रामसिंह एक योगी थे और योगियों को ही यह रचना सम्बोधित है। कर्ता के लिए देह एक देवालय है जिसमें अनेक शक्तियों सहित एक देव अधिष्ठित है। उस देव का आराधन करना, उसे पहचानना, उसमें तन्मय होना एक बड़ी गढ क्रिया है। जिसके लिए गुरु के उपदेश और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। इस ग्रंथ की रचना सन् 1000 ई. के लगभग सिद्ध होती है। ग्रंथ की भाषा सावयधम्मदोहा के काल की ही निर्विवाद है। वस्तुतः अपभ्रंश शब्द का भाषा के संदर्भ में सर्वप्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। उनका आशय संस्कृत से निकली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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