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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
तथा राजमहल और लोकजीवन के चित्रों की प्रस्तुति के साथ विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया। महत्वपूर्ण यह है कि डॉ. जैन ने भाषिक रचना और व्याकरण के साथ छायात्मक भाषिक परिवर्तन का सिद्ध भाषा-शास्त्री की तरह विवेचन किया है। अपभ्रंश का प्रतीक विधान और छंद-रचना कड़वक और घत्ता के कौशल का विवेचन पांडित्यपूर्ण है। करकंडचरिउ
(कारंजा 1934) मुनि कनकामर द्विजवंशी व चन्द्रर्षि गोत्रीय विद्वान थे। वैराग्य से वे दिगम्बर हो गये थे, उन्होंने आसाई नगरी में एक राजमंत्री के अनुराग से यह चरित्र लिखा। इस ग्रंथ का रचना काल 1050 ई. के लगभग है। यह रचना 12 संधियों में पूर्ण हुई है। कथानायक करकंड जैन और बौद्ध परंपरा में प्रत्येक बुद्ध के रूप में स्वीकृत नायक है। वे अंगदेश में चंपानगरी के राजा घाड़ी वाहन और रानी पद्मावती के पुत्र थे किन्तु घटना वशात् उनका जन्म शमशान में हुआ था। ग्रंथ में शमशान, गंगानदी, प्राचीन जिनमूर्ति के भूमि से निकलने एवं रतिवेगा के विलाप का वर्णन बड़ी खूबी से किया गया है।
इस ग्रंथ की रचना अपभ्रंश में हुई है। यही उस युग की लोकभाषा थी और इसी भाषा में उस युग में अनेक विशिष्ट ग्रंथ लिखे गये। 'करकंडचरिउ' महाराज करकंडु के जीवन पर लिखित ललित रचना है। भाषा और साहित्य की दृष्टि से यह रचना जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से भी। कथा की रोचकता, छंदों की सरसता रस और अलंकारों की मधुरता तथा सरल सुस्पष्ट, प्रांजल शैली इसकी विशेषता है। डॉ. जैन ने हिन्दी-अंग्रेजी प्रस्तावना में करकंडचरिउ के अध्ययन की पीठिका के साथ ऐतिहासिक तथ्यों पर भी विद्वत्तापूर्ण विचार किया है। मूल रचना के साथ हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद और विवेचनात्मक टीप पाठकों को ज्ञानवर्द्धन में सहायक है। इस ग्रंथ के द्वितीय संस्करण को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मर्तिदेवी ग्रंथमाला के अन्तर्गत 1964 में प्रकाशित किया गया है। सुदंसणचरिउ
नयनंदि कृत यह रचना वि. सं. 1200 की है। जैन भंडारों में सुरक्षित अपभ्रंश चरित काव्यों में इसका स्थान महत्वपूर्ण है। ग्रंथ की बारह संधियों की पुष्पिकाओं में कवि ने अपना और अपने गुरु माणिक्यनंदी त्रैविद्य का नामोल्लेख किया है। सुदंसणचरिउ कथात्मक काव्य है, जिसकी रचना विशेष रूप से जैनधर्म के सुप्रसिद्ध पंचणमोकार मंत्र के जाप का पुण्य-प्रभाव प्रगट करने के लिए हुई है। ग्रंथ में बारह संधियां हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के कथानक से यह स्पष्ट है कि उसकी केन्द्रीय घटना एक स्त्री के पर-पुरुष के ऊपर मोहासक्त होकर उसका प्रेम प्राप्त करने का एक उत्कट करता है। यहां कथातल सांसारिक जीवन का एक शाश्वत अंश है और उसके दृष्टांत प्राचीनतम ग्रंथों से लेकर वर्तमानकाल के साहित्य में पाये जाते हैं।
सुदंसणचरिउ की रचना भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुगीन तृतीय स्तर की उसी विशेष भाषा में हुई है जो अपभ्रंश नाम से जानी जाती है। इस भाषा के प्राचीन और प्रकाण्ड कवि स्वयंभू और पुष्पदंत की रचनाओं में इस भाषा और उसकी काव्य शैली का स्वरूप
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