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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
जैसे राष्ट्रीय सम्मान (मरणोपरांत ही सही) से उन्हें अलंकृत करने के लिए उनके नाम पर विचार किया।
'षट्खंडागम' अर्थात् आप्तवाणी के छः भाग हैं। इन छ: भागों की चिंतन सामग्री को उसकी संजीवनी टीका के साथ डॉ. जैन ने सोलह खंडों में पुस्तककारूढ़ किया है। पहले खंड जीवट्ठाण के आ. अनुयोग द्वार और नौ चूलिकाओं में गुणस्थान और मार्गणाओं
श्रय लेकर किये गये विस्तृत वर्णन की छः ग्रंथों में विद्वत्तापूर्ण प्रस्तुति की गयी है। दूसरा खंड 'खुद्दाबंध' है। इसके 11 अधिकार हैं सातवें ग्रंथ में इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबंध करने वाले जीव का भेदों सहित वर्णन-विश्लेषण किया गया है।
तीसरा खंड 'बंधस्वामित्वविचय' है। इस खंड की सामग्री कर्मबंध सम्बंधी विषयों का बंधक जीव की अपेक्षा से संबंधित है जो आठवें ग्रंथ में समाहित है। चौथे खंड का नाम वेदना है। इस खंड में कृति और वेदना अनुयोगद्वार हैं। सात प्रकार की कृति और सोलह अधिकारों के द्वारा वेदना का वर्णन व्याख्या विस्तार के कारण ग्रंथ 9, 10, 11 और बारह में पूरा हो पाया है। पाचवाँ खंड वर्गणा है। यह खंड ग्रंथ क्रमांक 13 और 14 में पूरा हुआ है। इस खंड का प्रधान अधिकार बंधनीय है। जिसमें 23 प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन और उनमें से कर्मबंध के योग्य वर्गणाओं का विस्तार से कथन किया है। छठवाँ खंड स्वयं भूतबलि आचार्य द्वारा सविस्तार रचित इकाई है। आचार्य वीरसेन ने धवला में उसकी टीका की आवश्यकता नहीं समझी। अग्रायणीय पूर्व के 14 अधिकारों में पांचवें अधिकार का नाम चयनलब्धि है। चयनलब्धियों के 20 प्राभृत हैं। इनमें चतुर्थ प्राभृत का नाम कर्मप्रकृतिप्राभृत है। इस प्रकार के 24 अधिकार हैं। मूल षट्खंडागम में उक्त-अनुयोगद्वारों में से पहले 6 का ही विवरण किया गया है। शेष निबंधन आदि 18 अनुयोगद्वारों का विवेचन आचार्य वीरसेन ने अपनी टीका में किया जिसे डॉ. हीरालाल जैन ने दो ग्रंथों में बांटा है। उनके पंद्रहवें ग्रंथ में निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय अनुयोगद्वारों की तथा अंतिम ग्रंथ सं. 16 में मोक्ष अनुयोगद्वार से लेकर शेष 14 अनुयोगद्वारों का परिचय विश्लेषण धवलाटीका और हिन्दी में अनुवाद किया गया है। संक्षेप में हम डॉ. हीरालाल के इस विपुल श्रम की पवित्र उपलब्धि को 'षट्खंडागम' का षोडशिक प्रस्फोटन नाम दे सकते हैं।
'षट्खंडागम' आप्तवाणी का सर्वाधिक प्राचीन एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ है। आचार्य वीरसेन द्वारा लिखी उसकी धवला टीका अद्वितीय है। इस धवलराज को सैंकड़ों वर्षों तक कौतुहल, श्रद्धा और भक्ति से देखने भर की सुविधा थी। इसके ताड़पत्र भी आठ सौ वर्ष जीर्ण हो गये थे। डॉ. हीरालाल जैन के भगीरथ प्रयत्न के सुफल के रूप में 1958 से वह सोलह भागों में दर्शन, पठन, अध्ययन और आप्तवाणी को आत्मसात करने हितार्थ सहज सुलभ हैं। इन ग्रंथों की प्रस्तावना अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनमें अनेक विषयों पर वैज्ञानिक सोच से विचार किया गया है। विद्वानों की शंकाओं के समाधान हैं। भाषा शास्त्रियों के लिए मध्यकालीन लुप्तकड़ियों को शृंखलाबद्ध करने की परिपूर्ण सामग्री है। बिखरे और छूटे अंशों की प्रस्तति से भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास के उपकरण संस्कृति के इतिहास की पुनः प्रस्तुति की प्रेरणा देते हैं।
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