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डॉ. हीरालाल जैन : ग्रंथ परिचय
भूतबलि को वे ही सिद्धांत सिखाये जो उन्हें उनसे पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्राप्त हुए और जिनकी परंपरा महावीर स्वामी तक पहुंचती है। पुष्पदंत और भूतबलि की रचना तथा उस पर वीरसेन की टीका इसी पूर्व परंपरा की मर्यादा को लिए हुए है। इसीलिए वे आगम के रूप में प्रख्यात हैं। आचार्य इन्द्रनन्दि द्वारा इस आप्तवाणी को षट्खंडागम नाम दिया गया है। इस ग्रंथराज के 6 खंड हैं- जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंध स्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा
और महाबंध। दिगम्बर आमान्य की मान्यतानुसार भगवान महावीर स्वामी की वाणी से संबंधित द्वादशांग श्रुत का बारहवाँ अंग दृष्टिवाद ही प्रस्तुत आगम का स्रोत है। दृष्टिवाद के अंतर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पांच प्रभेद हैं। इनमें से पूर्वगत
भेदों में से द्वितीय और आग्रायणीय पूर्व से ही जीवट्ठाण का बहभाग और शेष पांच खंड सम्पूर्ण निकले हैं।
षट्खंडागम में पुष्पदन्ताचार्य के सूत्र प्राकृत भाषा में है। वीरसेनाचार्य की टीका और उसमें उद्धृत प्राचीन गद्य-पद्य प्राकृत और संस्कृत भाषा में हैं। टीका का प्राकृत गद्य प्रौढ़ मुहावरेदार और विषयानुकूल संस्कृत की तर्कशैली से प्रभावित है। ग्रंथ की संस्कृत शैली अत्यंत प्रौढ़, परिमार्जित और न्यायशास्त्र के ग्रंथों के अनुरूप है।
धरसेनाचार्य के समकालीन एक और आचार्य गुणधर थे। इन्हें भी द्वादशांग का कुछ ज्ञान था। उन्होंने कषाय प्राभृत की रचना की। इसपर भी आचार्य और उनके शिष्य वीरसेन, जिनसेन ने टीका लिखी जो जयधवला नाभ से ख्यात हुई। षट्खंडागम के अंतिम खंड महाबंध की रचना आचार्य भूतबलि ने विस्तार से की। यह कृति इतनी सूक्ष्म विवेचन संपन्न थी कि वीरसेनाचार्य ने स्वतंत्र रूप से लिखी। महाबंध की यही टीका आगम के टीका-इतिहास में महाधवल के रूप में ख्यात हुई।
उक्त महाग्रंथों की ताड़पत्र पर कानड़ी लिपि में लिखी प्रति मूड़विद्री के भंडार में बन्द थी। ग्रंथराज केवल दर्शन सुलभ थे। इनकी नागर लिपि में उसकी प्रतियाँ कराया जाना और उनके पाठ-संशोधन, सम्पादन, भाषा-टीका और हिन्दी अनुवाद की विवृति का संकल्प स्वयं में इतिहास है। विदिशा के सेठ शिताबराय लक्ष्मीचंद ने गजरथ के लिए संकल्पित राशि रु. दस हजार का दान षट्खंडागम के प्रकाशन हेतु समर्पित कर दिया। गजरथ चलवाते तो सिंघई की उपाधि मिलती; षट्खंडागम के प्रकाशनार्थ दान की घोषणा की तो समाज ने उन्हें श्रीमंत सेठ की उपाधि से विभूषित किया। उन्हें और उनके बाद उनकी संतति को एक नहीं सोलह गजरथ चलाने का यश-भाग मिला। डॉ. हीरालाल जैन ने षट्खंडागम के पाठान्तर, सम्पादन, भाषा-टीका और हिन्दी अनुवाद रचना पर अपने बहुमूल्य जीवन के बीस वर्ष और अपनी अमूल्य जीवन संगनी का उत्सर्ग कर हमें ईश्वरीय वाणी का साक्षात् कराया। ब्राह्मणों के वेद और बौद्धों के त्रिपिटिक की तरह जैनियों के आगम ग्रंथ भी समाज सुलभ हुए तो न केवल जैन धर्मावलम्बियों में चिन्तन की विरासत के गर्व का अहसा हुआ वरन् भारतीय संस्कृति की चिन्तन-त्रिवेणी को प्रकाश में लाने पर होने वाली राष्ट्रीय गर्व के लिए जैन समाज ने परम्परा-सम्मत अलंकरण 'सिद्धांत चक्रवर्ती' से उन्हें विभूषित किया और न ही हमारे देश के कर्णधारों ने 'भारत रत्न' या 'पद्मविभूषण'
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