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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
हम ऊपर मध्य युग की जिस लुप्त कड़ी की ओर संकेत कर आये हैं उसको ज्ञान-सुलभ करने की श्रम-साध्य चेष्टा करने वाले मनीषियों में डॉ. हीरालाल जैन का स्थान सर्वप्रथम है। डॉ. जैन का पहला महत्वपूर्ण कार्य शौरसेनी प्राकृत और कानड़ी लिपि में लगभग एक हजार वर्ष तक सूर्य-प्रकाश-वंचित षट्खंडागम की ताड़पत्र की प्रति का उद्धार करना और नागरी लिपि में प्रामाणिक पाठ और टीका सहित षोडशिक भाषानुवाद प्रकाशित करना था। स्मरणीय है कि यह जैनागम पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों द्वारा ईसा की दूसरी शताब्दी में सूत्रबद्ध किया गया था। नौवीं शताब्दी में आचार्य वीरसेन ने इसकी धवलाटीका रची थी। सिद्धांत चक्रवर्ती नेमिचंद्र ने ग्यारहवीं सदी में षट्खंडागम और धवलाटीका के आधार पर गोम्मटसार जीवकांड और कर्मकांड खण्डों में सार निचोड़कर 1695 गाथाओं में दो खंडों की रचना की थी। तब से मूल खंडागम के अध्ययन-अध्यापन की प्रणाली समाप्त हो गयी। डॉ. हीरालाल जैन ने मूल खंडागम और धवलाटीका की प्रामाणिक प्रति भाष्य और भाषानुवाद सोलह ग्रंथों में 20 वर्ष के अध्यवसाय के बाद प्रकाशित कर दिगम्बर जैन आम्नाय के मल ग्रंथ को लोक हितार्थ सलभ कराने का अकल्पित कार्य किया है। इसलिए उन्हें हमें सिद्धांत शोध चक्रवर्ती के रूप में असीमित आदर और परम श्रद्धा के रूप में स्मरण करना चाहिए।
डॉ. हीरालाल जैन का दूसरा महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य अपभ्रंश भाषा में रचित चरित काव्यों का उद्धार कर आर्यभाषा-विकास की मध्यकालीन कड़ी को उसका ऐतिहासिक स्थान दिलाना और अपभ्रंश भाषिक-संरचना, व्याकरण और ध्वन्यात्मक विकास के प्रामाणिक अध्ययन के साथ आधुनिक हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास की संगति प्रस्तुत करना रहा है।
डॉ. हीरालाल जैन का तीसरा महत्वपूर्ण योगदान उनके पुरातात्विक अध्ययन के
है। उन्होंने प्राचीन जैन शिलालेखों का सक्ष्म अध्ययन-विश्लेषण कर इतिहास की बिखरी कड़ियों को श्रृंखलाबद्ध करने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। वे प्राच्य विद्याचार्य थे और आर्यभाषा के विविध स्तरों के विकास से होने वाले परिवर्तनों की समझ रखने वाले और उसकी अभिव्यक्तिक्षम संगति बिठाने की कला में दक्ष अद्वितीय अध्येता और विद्वान थे।
आधुनिक युग में जैन-ज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान को वैज्ञानिक आधार देने वालों में डॉ. हीरालाल जैन अनन्यतम थे। साहित्य, दर्शन, कला, भाषाशास्त्र, तुलनात्मक विवेचन और मौलिक चिन्तन सभी में उनकी प्रतिभा ने नये आयामों का उद्घाटन किया। हम यहाँ उनकी प्रकाशित कृतियों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। पुस्तक परिचय को कालक्रमानुसार देने की अपेक्षा विषय-संगति के अनुकूल देना औचित्यूपर्ण होगा। अपभ्रंश के चरितकाव्यों और उनकी ऐतिहासिक शोधपरक कृतियों के प्रकाशन को कालक्रमानुसार ही रखा गया है। षट्खंडागम (शि. ल. जैन न्यास, 1938-58)
आगम प्रत्यक्ष के बराबर का प्रमाण माना जाता है। धरसेनाचार्य ने पष्पंदत और
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