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वैशाली के सारस्वत सन्त पुण्यश्लोक डॉ. हीरालाल जैन
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का प्रकाशन हुआ। आचार्य अनन्त प्रसाद जैन 'लोकपाल' को डॉ. जैन की आत्मीयता सहज सुलभ थी। इन्होंने उनके सम्बन्ध में उनकी भूरिशः प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "उनके (डॉ. जैन के) सान्निध्य में एक प्रकार के विशिष्ट आनन्द की अनुभूति होती थी। सदा प्रफुल्ल रहना उनका स्वभाव था। उनकी बातें बड़ी मीठी, मनोहारी और हृदयग्राही होती थीं।" (द्र. तत्रैव, पृ.-81)
निश्चय ही, डॉ. जैन ने जैन वाङ्मय की जो अपूर्व सेवा की है, वह तो अविस्मरणीय है ही, वैशाली प्राकृत-शोध-संस्थान की सम्यक् समृद्धि के लिए किये गये उनके बहुमुख प्रयत्नों का भी क्रोशशिलात्मक और ऐतिहासिक महत्व है। डॉ. जैन जैसे अक्षर पुरुष को ध्यान में रखकर आचार्य भर्तृहरि ने लिखा होगा
जयन्तिते सुकृतिनः रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यश:काये जरामरणजं भयम्। निस्सन्देह, डॉ. जैन का पार्थिव शरीर निरस्तित्व हो गया है, पर वह अपने यशःशरीर से सनातन पुरुष के रूप में 'न ममार न जीर्यति' उक्ति को चरतार्थ करते रहेंगे।
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