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भारतीय संस्कृति नारी की स्वतंत्रता और अस्मिता को प्राचीन काल से संरक्षित करती रही है। हमारी संस्कृति महिलाओं को पत्नीत्व और मातृत्व के तटबंधों के बीच पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों के सम्यक् निर्वाह का संदेश प्रदान करती है। महिला के विकास का सर्वोच्च शिखर उसका मातृत्व ही है। अतः हम पश्चिम से आए नारी स्वातंत्र्य के अंधानुकरण से बचें और महिला को सशक्त करने और पराधीनता से मुक्त बनाने के लिए विवाह संस्था को पूर्ण सम्मान दें। महिला की स्वतंत्रता देह की मुक्ति और भोग की शक्ति तक ही सीमित नहीं है। महिला की स्वतंत्रता पत्नि और माता के संबंधों से मुक्त होकर देह भोग की उन्मुक्त छूट तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक महिला का कर्त्तव्य है कि वह पत्नीत्व और मातृत्व की भूमिका का निर्वाह कर पारिवारिक एवं सामाजिक विकास में अपना पवित्र एवं रचनात्मक योगदान दें।
भारतीय महिलाओं ने अपनी निष्ठा, साहसिक भूमिका और सजगता से पूरे विश्व को प्रभावित किया है। महाभारत ने प्रभावी ढंग से द्रोपदी, सावित्री और शंकुतला के स्वतंत्र व्यक्तित्व, दृढ़ता, तेजस्विता, अप्रतिम साहस एवं स्वाभिमान का वर्णन किया है। आदि कवि बाल्मीकी ने रामायण में सीता की सजगता, मुखरता और उग्रता को उल्लेखित किया है। उन्होंने सीता के माध्यम से हर पल अपने पति के साथ रहने के हर महिला के अधिकार को संरक्षित किया है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने अपनी सौम्यता के साथ सरल किन्तु सशक्त उक्तियों के माध्यम से पति संग रहने के सीता के अधिकार को संस्थापित किया है। सीता ने स्वविवेक से अपने पति राम के साथ वन जाने का निर्णय लेकर अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को स्थापित किया है। भारतीय संस्कृति ने अपनी महिलाओं को स्वविवेक से निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्रदान की है। पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्रदान किया है। मध्यकाल में पद्मावत (मलिक मुहम्मद जायसी) ने पद्मावती को मानवीय सदगुणों की जननी घोषित करते हुए पुरुष की श्रेष्ठता के दंभ को ध्वस्त किया है। भारतीय नव जागरण के अग्रदूत राजाराम मोहन राय ने सती दाह का विरोध किया । आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सन् * जिला एवं सत्र न्यायाधीश, 30, निशात कॉलोनी, भोपाल, म.प्र. - 462003.
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जैन महिलाओं के व्यक्तित्व का चतुर्मुखी विकास
विमला जैन*
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