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________________ स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ इसी प्रकार की प्रज्ञा को योगसूत्र में ऋतम्भरा प्रज्ञा नाम दिया गया है- ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा । योगसूत्र 1 /48 2. त्रैकालिक ज्ञान / कैवल्य 460 इसी प्रकार का वर्णन योगसूत्र में भी आया है पश्यतः सर्वभावान् हि सर्वावस्थासु सर्वदा । ब्रह्मभूतस्य संयोगो न शुद्धस्योपजायते ।। च. शा. 5/21 उपधा 3. जातिस्मर पातञ्जल योगसूत्र में परिणाम त्रय के संयम से जातिस्मरण ज्ञान का उल्लेख हैसंस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्। ( योगसूत्र 3 / 18 ) । इसी प्रकार का सन्दर्भ चरक संहिता में आया है- येनास्य खलु मनो भूयिष्ठं तेन द्वितीयायामाजातौ संप्रयोगो भवति तदा तु तेनैव शुद्धेन संयुज्यते, तदा जातेरतिक्रान्ताया अपि स्मरति । स्मार्तं हि ज्ञानमात्मनस्तस्मैव मनोऽनुबन्धाद् अनुवर्तते, यस्यानुवृत्तिं पुरस्कृत्य पुरुषो जातिस्मर इत्युच्यते । - च. शां. 3/13 अष्ट सिद्धि यागसूत्र में अष्टसिद्धि का स्पष्ट उल्लेख है- तताऽणिमादि प्रादुर्भावः कायसम्पत् तद्धर्मानभिद्यातश्च ।- योगसूत्र 3/451 ठीक इसी प्रकार सत्वबहुल अर्थात् शुद्ध मन के समाधान से प्राप्त होने वाली आठ सिद्धियों का वर्णन चरक संहिता में आया हैआवेशश्चेतसो ज्ञानमर्धानां छन्दतः क्रियाः । - तद् वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् । - योगसूत्र 3/50 संसार का कारण चरक संहिता सांख्य प्रस्थानीय शास्त्र है इसलिए त्रिगुणात्मक प्रकृति को केन्द्र में रखकर ही संसार और मोक्ष का विवेचन किया गया है। मोक्ष में रज और तम का अभाव कारण है तो संसार में रज और तम से संयोग किया गया। Jain Education International दृष्टि, श्रोत्रं स्मृतिः कान्तिरिष्टतश्चाप्यदर्शनम् । इत्यष्टविधमाख्यातं योगिनां बलमैश्वरम् । शुद्धसत्वसमाधानात् त्रत्सर्वमुपजायते ।। - च. शा. 1/140-141 रज और तम का मनःसम्बन्ध उपधा है। यह उपधा ही दुःख और दुःख के कारणभूत आश्रय (शरीर) की जनयित्री है। इसलिए दुःखों से मुक्ति का एक मात्र उपाय है उपधा का त्याग रजस्तमोभ्यां युक्तस्य संयोगोऽयमनन्तवान् । ताभ्यां निराकृताभ्यां तु सत्ववृद्धया निवर्तते । । - च. शा. 1/36 उपधा हि परो हेतुः दुःख दुःखाश्रयप्रदः । त्यागः सर्वोपधानां च सर्वदुःखव्यपोहक ॥ इच्छा द्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखादुपजायते । तृष्णा च सुखदुःखानां कारणं पुनरुच्यते ।। च. शा. 1/134 इस प्रकार यहाँ संक्षेप में आयुर्वेद और महर्षि पतंजलि के विषय में विचार प्रस्तुत For Private & Personal Use Only - च. शा. 1/95 www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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