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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
इसकी सूचना विरुद्ध वाक्यदोष के प्रकरण में प्राप्त होती है
... समयः पुनस्त्रिधा भवति-आयुर्वेदिक समयः, याज्ञिक समयः, मोक्षशास्त्रिक समयश्चेति। - च. वि. 8 १. मन
चरक संहिता में मन को द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हुए उस काल में उपलब्ध मनोविज्ञान का परिचय दिया गया है। द्रव्य होने के साथ ही, आयु के एक घटक
और व्याधि के आश्रय के रूप में सत्व नाम से मन को प्रतिपाद्य बनाया गया है। तत्वचिन्ता प्रकरण में चतुर्विंशति तत्वों में मन को उभयेन्द्रिय माना गया है। जबकि योगदर्शन में मन का तात्विक विवेचन प्राप्त नहीं होता अपितु 'चित्त' का उल्लेख मात्र है। यद्यपि यह चित्र सांख्यदर्शन का प्रतिपाद्य है। चरक संहिता में प्राप्त मन का स्वरूप, कर्म, लक्षण वैशेषिक दर्शन से समानता रखते हैं, किन्तु सात्विक, राजस, तामस भेदों के भी उपभेदों के रूप में 16 मानस प्रकृतियों का वर्णन आयुर्वेद की मौलिक अवधारणा है। ऐसा वर्णन पातञ्जल योग सूत्र या अन्य दर्शनों में नहीं प्राप्त होता।
शरीरं सत्वसंज्ञं च व्याधीनामाश्रयो मतः। तथा सुखानां योगस्तु सुखानां कारणं समः।। - च. सू. 1/55 प्रशाम्यत्यौषधैः पूर्वो दैवयुक्ति व्यपाश्रयेः। मानसो ज्ञान-विज्ञान-धैर्य-स्मृतिसमाधिभिः।। - च. सू. 1/58 मानसं प्रति भैषज्यं त्रिवर्गस्यान्ववेक्षणम्।
तद्यविद्यसेवा विज्ञानमात्मादीनां च सर्वशा:।। - च. सू. 11/47 10. शरीर
चूंकि आयुर्वेद में शारीरिक और मानसिक व्याधियों के आश्रय के रूप में शरीरि पुरुष को अधिकरण के रूप में स्वीकार किया गया है इसलिए आयुर्वेद शास्त्रापेक्ष शरीर का वर्णन चरक संहिता में विस्तृत रूप से प्राप्त होता है। किन्तु पातञ्जल योग में प्राण (प्राणायाम सापेक्ष), उदान और समान वायु का उल्लेख है। विभूति पाद में शरीर ज्ञान सम्बन्धी सन्दर्भो का संकलन निम्नानुसार हैसूर्य (सूर्यनाड़ी)
2/26 चन्द्र (चन्द्रनाड़ी)
2/27 ध्रुव (भूमध्य)
2/28 नाभिचक्र
2/29 कण्ठकूप
2/30 कर्मनाड़ी (डायफ्राम)
2/31 मूर्धा (सहस्रार)
2/32 हृदय
2/34 उदान
2/39 10. समान
2/40 11. श्रोत्र
2/41 काय
2/42
तलं
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12.
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