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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
गया है और उस द्विप्रकारक कर्म के तीन-तीन प्रकार भी बताये गये हैं
दैवमात्मकृतं विद्यात् कर्मयत् पौर्वदैहिकम्। स्मृतः पुरुषकारस्तु क्रियते य दिहापरम्।। बलाबलविशेषात् तु तयोरपि च कर्मणोः।
दृष्टं हि त्रिविधं कर्म हीनं मध्यममुत्तमम्।। -च. विमान 3/30-31 3. कर्मफल
जैसा कि पूर्व के प्रकरण में बताया गया है कि छोटा-बड़ा ऐसा कोई कर्म नहीं है जिसके फल का भोग नहीं करना पड़ता हो। अर्थात् यदि कर्म का क्षय तप आदि विशेष उपायों से नहीं किया जाता तो कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
योगसूत्र में कहा गया है कि उस कर्म का विपाक होने पर जन्म, आयु और भोग होते हैं
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः। योगसूत्र 3/13 ___ यह सिद्धान्त चरक संहिता में भी समान रूप से स्वीकार किया गया है जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है। 'कर्मफल' संयुक्त शब्द का प्रयोग भी चरक संहिता विमान स्थान में आया है
..... सिद्धाः कर्मफलमोक्षपुरुषप्रेत्यभावा इति। - च. वि. 8/37 4. कर्मबन्ध
कर्मफल के सिद्धान्त को भारतीय दर्शन में स्थान सर्वत्र दिया गया है किन्त कर्मबन्ध का स्वरूप मात्र जैन दर्शन में बताया गया है। कर्मबन्ध के लिए प्रकरण में 'बन्ध' शब्द का प्रयोग देखा जाता है। योगसूत्र में बन्ध शब्द का प्रयोग ज्ञात नहीं हो सका, किन्तु चरक संहिता में कर्म के प्रकरण में बन्ध शब्द का स्पष्ट प्रयोग है
भास्तमः सत्यमनृतं वेदाः कर्म शुभाशुभम्। न स्युः कर्ता च बोद्धा च पुरुषो न भवेद्यदि।। नाश्रयो न सुखं नार्ति गति न गति न वाक। न विज्ञानं न शास्त्राणि पुरुषो न भवेद् यदि।।
न बन्धो न च मोक्षः स्यात् पुरुषो न भवेद् यदि। - च. शा. 1/39-40 बन्ध के लिए संग शब्द भी प्रयुक्त हुआ है
यन्मनोवाक्कायकर्म नापवर्गाय स संग:। -च. शा. 5/12 5. मोक्ष की परिभाषा
चरक संहिता में कर्म के क्षय को मोक्ष के रूप में परिभाषित किया है और उसकी प्रक्रिया में रज और तम दोषों के अभाव के कारण सभी संयोगों से वियो कहा है
मोक्षो रजस्तमोऽभावात् बलवत्कर्मसंक्षयात्।
वियोगः सर्वसंयोगैरपुनर्भव उच्यते। - च. शा. 1/142 मोक्ष को पर्याय शब्दों के द्वारा प्रतिपादित करते हुए मोक्ष का स्वरूप स्पष्ट किया
गया है
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