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आयुर्वेद और पतञ्जलि
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विहनीभूता यदा रोगः प्रादुर्भूताः शरीरिणाम्।
तपोपवासाध्ययन ब्रह्मचर्यव्रताजुषाम्। - च. सूत्र 1/6 तथा
ब्रह्मज्ञानस्य निधयो यमस्य नियमस्य च। धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्।
रोगस्तस्याप हर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च। -च. सू. 1/14-15 संयमन के अर्थ में युज् धातु का प्रयोग
प्राकृत वायु के कार्यों का वर्णन करते हुए इन्द्रियों के उद्योजक के रूप में वायु का निरूपण किया गया है- .......... वायुस्तन्त्रयन्त्रधरः ............... सर्वेन्द्रियाणां उद्योजकः ............ | - च. सूत्र 12/8 संगमन / संसक्ति के अर्थ में योग शब्द
रोग और आरोग्य के कारण के रूप में चार प्रकार का और एक प्रकार का योग क्रमशः बताया गया है- यह योग युजिर् योगे धातु से निष्पन्न है
कालबुद्धीन्द्रयार्थानां योगो मिथ्या न चाति च ।
द्वयाश्रयाणां व्याधीनां त्रिविधो हेतु संग्रहः। च. सू. 1/54 इस सूत्र में मिथ्यायोग, अयोग और अतियोग ये तीन प्रकार बताये गये हैं, कहीं-कहीं पर तीन योग नाम से भी उपदेश है। ये चार योग रोग के कारण हैं। समयोग आरोग्य का कारण है
शरीरं सत्वसंज्ञं च व्याधीनामाश्रयो मतः।
तथा सुखानां योगस्तु सुखानां कारणं समः।। -च. सू. 1/55 पातञ्जल महाभाष्य में यद्यपि तत्तत् प्रकरणों में इन शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु योगदर्शन का प्रतिपादक ग्रन्थ न होने से शब्द प्रयोग को दार्शनिक धारा का सामञ्ज कहा जा सकता। 2. कर्म
तत्वविज्ञान अर्थात् पदार्थ विज्ञान में द्रव्याश्रित कर्म को एक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है जो वैशेषिक दर्शन का प्रतिपाद्य है। किन्तु पौर्वदैहिक कर्म के रूप में एक पृथक् तत्व का वर्णन कर्म सिद्धान्त का प्रतिपाद्य उससे भिन्न है। भारतीय दर्शन की विभिन्न धाराओं में पौर्वदैहिक कर्म को अत्यन्त व्यापक रूप में समर्थन प्राप्त है। योग दर्शन में इसी कर्म का उल्लेख हुआ है
क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः। - योगसूत्र 3/12 इसी अर्थ में चरक संहिता में परिभाषा के साथ कर्म का विवेचन किया गया है। यह कर्म योग का भी कारण हो सकता है। इस प्रकार के योग की शान्ति उस कारणभूत कर्म के क्षय से बतायी गयी है
न हि कर्म महत किञ्चित फलं यस्य न भज्यते।
क्रियाघ्ना कर्मजा रोगाः प्रशमं यान्ति तत्क्षयात्।। -च. शा. 1/17 कर्म और पुरुषकार शब्दों में भेद स्थापित करते हुए 'कर्म' को परिभाषित किया
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