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________________ वैशाली के सारस्वत सन्त पुण्यश्लोक डॉ. हीरालाल जैन Jain Education International से निनादित इस संस्थान के सक्रिय सम्पर्क में आने का अलभ्य लाभ मिला। सचमुच संस्थान की एक- एक ईंट में, वहाँ के पेड़-पौधों के एक-एक पत्ते में और वहाँ के शोध - ग्रन्थागार के ग्रन्थों के एक-एक पन्ने में डॉ. जैन की वैखरी अन्तर्ध्वनित होती हुई प्रतीत होती है। कहना न होगा कि 'संस्थान' के, डॉ. जैन के परवर्ती सभी निदेशक उनकी गौरव-गरिमा और मान महिमा को अक्षुण्ण रखने का भरसक प्रयत्न करते आ रहे हैं। यह बात और है कि अब बिहार सरकार में पुण्यश्लोक डॉ. जगदीशचन्द्र माथुर आई. सी. एस. जैसे गुणज्ञ शिक्षा - सचिव और आचार्य बदरीनाथ वर्मा जैसे शास्त्रज्ञ शिक्षामंत्री नामशेष रह गये हैं। वर्तमान बिहार सरकार को 'संस्थान' की सारस्वत उपयोगिता को, उसकी शैक्षिक महत्ता को समझने की शक्ति और समय नहीं है। और फिर, डॉ. जैन जैसे स्वाभिमानी और दबंग निदेशक भी दुर्लभ हैं, जो सरकार की आँखों में ऊँगली डालकर उसे 'संस्थान' की सत्ता, महत्ता और गुणवत्ता से अवगत करायें। डॉ. जैन शान्त, सौम्य और विनम्र प्रकृति के विद्वान अवश्य थे, पर उनमें अद्भुत दृढ़ता भी थी। वह जितने प्रखर अनुशासक थे, स्वयं उतने ही अनुशासन प्रिय थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने डॉ. जैन का व्यक्तित्व विश्लेषण करते हुए लिखा है कि "वे शान्तभाव से सारी बातें सुनते थे और बाद में उसपर विचार करते थे। उनमें विनय, शील, विद्वता और दृढ़ता का मिलित रूप था। उन्होंने लगभग चौदह पुस्तकें हमें दी हैं, जो एक से एक महत्वपूर्ण हैं। उन पुस्तकों से जहाँ जैनशास्त्र के उनके प्रगाढ़ अध्ययन का पता लगता है, वहीं अपभ्रंश साहित्य में उनकी गहरी पैठ का भी पता चलता है। उनकी विद्वत्ता और सुजनता अब केवल याद करने की चीज रह गई है।" (द्र तत्रैव, पृ. 77 ) निःसन्देह, डॉ. हीरालाल जैन जैसी अतलस्पर्श गम्भीरता अन्यत्र सुदुर्लभ है। डॉ. देवनारायण शर्मा डॉ. हीरालाल जैन को अपना ऋषिकल्प पूज्य गुरु मानते हुए श्रद्धासिक्त भाव से मर्मस्पर्शी शब्दों में लिखा है कि 'डॉ. जैन साहब से मेरी अन्तिम भेंट उनके महाप्रयाण से पाँच महीने पूर्व जबलपुर अस्पताल में हुई, जब मैं प्राकृत विद्यापीठ ( प्राकृत रिसर्च इन्स्टीच्यूट) के अपने सहकर्मी डॉ. रामप्रकाश पोद्दार ( ये दोनों 'संस्थान' के निदेशक पद को अलंकृत करने वालों में पांक्तेय हैं) के साथ प्राच्य विद्या-सम्मेलन में भाग लेकर उज्जैन से लौट रहा था। ज्योंही हमारे मित्र डॉ. विमल प्रकाश जैन (डॉ. जैन के सदानुगामी पुत्रकल्प शिष्य) ने डॉ. जैन को सूचित किया- 'मुजफ्फरपुर के पोद्दारजी तथा देवनारायणजी शर्मा आपसे मिलने आये हैं।' वे इस अधीरता से विस्तर पर उठ बैठे और हाथ बढ़ाकर हम दोनों को उन्होंने ऐसे पकड़ लिया, मानो दीर्घकाल की खोई सम्पत्ति हाथ आ गई हो। उस रुग्णावस्था में भी उनका सहज वात्सल्य उमड़ पड़ा। उस पूज्य गुरु का वह अन्तिम पार्थिव स्पर्श था, जिसने अपने जीवन में छात्रों के लिए सर्वस्व लुटाना ही सीखा था, उनसे कुछ भी प्राप्त करना नहीं। (द्र तत्रैव, पृ. - 79) महान् चिन्तकों का विनोदी स्वभाव का होना बहुधा देखा जाता है। आचार्य हरिभद्र सूरि महान् दार्शनिक होते हुए भी अतिशय विनोदी थे, यह उन्होंने ' 'धूर्त्ताख्यान' लिखकर सिद्ध कर दिया है। इनके परवर्ती आधुनिक काल में महा महोपाध्याय पं. 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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