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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
वाङ्मय तप की प्रभा से प्रोद्दीप्त डॉ. हीरालाल जैन सन्तोचित विभूति से विभासित थे। तत्कालीन बिहार के साहित्य-मर्मज्ञ शिक्षा-सचिव डॉ. जगदीशचन्द्र माथुर की, योग्य व्यक्ति को योग्य पद पर प्रतिष्ठित करने और उसकी योग्यता को परखने-पहचानने की अद्भुत योग्यता थी। उन्होंने स्वातन्त्र्योत्तर बिहार में संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत-अपभ्रंश एवं पालि के शोध-विकास की बहुमुखता के निमित्त बिहार सरकार द्वारा स्थापित चार संस्थाओं में चार ऐसे व्यक्तित्वों का विनियोजन किया, जो तत्तद् विषय के चूडान्त और निष्णात विद्वान थे। संस्कृत के लिए दरभंगा में संस्थापित संस्कृत-शोध-संस्थान में पं. उमेश मिश्र को; प्राकृत-अपभ्रंश के लिए वैशाली (बासोकुण्ड) में संस्थापित प्राकृत-संस्थान में डॉ. हीरालाल जैन को; पालि के निमित्त नालन्दा में संस्थापित नवनालन्दा महाविहार या पालि शोध संस्थान में भिक्षु जगदीश कश्यप को और हिन्दी के लिए पटना में संस्थापित बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् में आचार्य शिवपूजन सहाय को पदस्थापित किया।
उक्त बलेटिन सं0-2 में कई विद्वान लेखकों ने श्रद्धानत भाव से डॉ. जैन के सद्गुणों का उल्लेख किया है। प्राकृत-जगत् के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर पुण्यश्लोक दलसुख मालवणियाजी ने लिखा है कि "डॉ. हीरालाल जी ने अपने जीवनकाल में जो कुछ किया है, उसके कारण उनकी स्मृति चिरकाल तक बनी रहेगी, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु जैन समाज के विद्वानों के लिए तो वे एक चुनौती छोड़ गये हैं। वह है सत्यनिष्ठा की साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर सत्यप्रिय बनने की"। (पृ.-75)
पुण्यश्लोक मालवणियाजी ने डॉ. जैन का पुण्यस्मरण जिस भावनिष्ठा से किया है, वह इस बात की ओर संकेत करता है कि प्राकृत विद्यापीठ (अब 'प्राकृत-जैनशास्त्र
और अहिंसा-शोध-संस्थान') के उद्भव और विकास के लिए डॉ. जैन ने प्राणपण से परिश्रम किया। 'संस्थान' के निदेशक के रूप में उन्होंने संस्था-संचालन के लिए अपेक्षित प्रशासन-क्षमता एवं कर्मठता का परिचय दिया। आज 'संस्थान' के साथ डॉ. जैन की स्मृति इस प्रकार जुड़ी हुई है कि दोनों एकमेक हो गये हैं। 'संस्थान' को रचनात्मक अस्तित्व प्रदान करनेवाले डॉ. जैन को आज भी उनके सुधी अन्तेवासी और 'संस्थान' के वर्तमान कार्यकर्ता परिवार श्रद्धा और आदरपूर्वक स्मरण करते हैं। 'संस्थान' के स्थापत्य के साथ उनकी कीर्ति-काया भी शश्वत्प्रतिष्ठ हो गई है।
मेरा असौभाग्य है कि मुझे परम साधुचरित डॉ. जैन से मिलने और सत्संग करने का अवसर नहीं मिला, परन्तु उनके शास्त्रदीक्षित शिष्यों, जो मेरे सारस्वत मित्रों में अन्यतम हैं, जैसे प्रो. डॉ. विमल प्रकाश जैन, प्रो. डॉ. राजाराम जैन, प्रो. डॉ. रामप्रकाश पोद्दार, प्रो. डॉ. देवनारायण शर्मा आदि से उनका गुण-कीर्तन सुनने का सौभाग्य मैंने अवश्य प्राप्त किया है। जब मैंने इस संस्थान के एक परीक्षार्थी के रूप में प्राकृत-जैनशास्त्र में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और पी-एच. डी. की डिग्री हासिल की और कुछ दिनों तक मुझे उस महामहिम संस्थान में बिहार सरकार द्वारा नियुक्त होकर प्राकृत के व्याख्याता के रूप में अध्यापकीय जीवन जीने का स्वर्णिम अवसर मिला, तब मैं यह सोच-सोचकर गौरवान्वित और हर्ष-पुलकित होता रहा कि मुझे डॉ. जैन की दिव्य आत्मा के अन्तर्नाद
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