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वैशाली के सारस्वत सन्त पुण्यश्लोक डॉ. हीरालाल जैन
अपनाया और सन् 1924 ई. में भाण्डार में संगृहीत हस्तलिखित पोथियों की विशद सूची तैयार की। उस समय प्राकृत और अपभ्रंश के क्षेत्र में शोध की प्रौढ़ता नहीं आई थी। डॉ. जैन मुख्यतया आचार्य पुष्पदन्त की अपभ्रंश कृतियों की ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने उन कृतियों का समीक्षात्मक सम्पादन कार्य वैदुष्यपूर्ण ढंग से सम्पन्न किया। ये प्रमुख कृतियाँ थीं- 'णायकुमार चरिउ' और 'जसहरचरिउ '।
इन दोनों अपभ्रंश--कृतियों के अतिरिक्त डॉ. जैन की सम्पादित कृतियों में निम्नांकित मुख्य हैं
1. सावयधम्यदोहा (कारंजा सीरीज: 1932 ई.)
2.
3.
4.
पाहुडदोहा (प्रथम संस्करण : कारंजा सीरीज 1939 ई.; द्वितीय संस्करण : भारतीय ज्ञानपीठ, 1964 ई.)
27
षट्खण्डागम : धवला टीका सहित खण्ड 1 से 16 ( एस. एल. जैन साहित्योद्धारक फण्ड, 1938 ई. से 1958 ई.)
जैन शिलालेख-संग्रह, भाग - 1 ( एम. डी. जैन ग्रन्थमाला, 1928 ई.) तत्वसमुच्चय (भारतीय जैन महामण्डल, 1952 ई.)
5.
6.
सुगंधदशमी कथा ( भारतीय ज्ञानपीठ, 1966 ई.)
7.
सुदंसणचरिउ ( प्राकृत रिसर्च इन्स्टीच्यूट, वैशाली, 1969 ई.) मयणपराजयचरिउ ( भारतीय ज्ञानपीठ, 1962 ई.)
8.
9. कहकोसु (प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, अहमदाबाद, 1969 ई.)
डॉ. जैन की कालजयी मौलिक काव्यकृति है- 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान'। यह मध्यप्रदेश शासन द्वारा सन् 1962 ई. में प्रकाशित हुई है। इसका अब द्वितीय संस्करण उपलब्ध है। इस भाग्यशाली कृति का मराठी और कन्नड़ में अनुवाद हुआ है। डॉ. जैन की यथा प्रस्तावित जन्मशती समारोह के सन्दर्भ में वितरित 'फोल्डर' में यह सूचना अंकित की गई है कि इस महार्ध कृति के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य डॉ. जैन के योग्यतम अन्तेवासी अधीती मनीषी प्रो. डॉ. विमल प्रकाश जैन (पूर्व-निदेशक, भोगीलाल लहेरचन्द्र इन्स्टीच्यूट ऑव इण्डोलॉजी, दिल्ली) द्वारा सम्पन्न हो रहा है।
प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ. हीरालाल जैन एक आदर्श शिक्षक थे। सन् 1925 ई. में, व्याख्याता के रूप में उनकी नियुक्ति अमरावती गवर्नमेंट कॉलेज में हुई। सन् 1944 ई. में वह नागपुर कॉलेज में स्थानान्तरित हुए। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से डी. लिट् की शोधोपाधि प्राप्त की। वह मध्यप्रदेश शासन की सेवा से सन् 1954 ई. में निवृत्त हुए । तदनन्तर वह बिहार सरकार की सेवा में 'प्राकृत रिसर्च इन्स्टीच्यूट', वैशाली के संस्थापक निदेशक के रूप में नियुक्त हुए और वहाँ सन् 1961 ई. की जुलाई तक सेवारत रहे । सन् 1961 ई. में ही उन्हें जबलपुर विश्वविद्यालय के प्राकृत, पालि और संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया गया। वहाँ वह लगातार सन् 1970 ई. तक उक्त पद को गरिमामण्डित करते रहे। इस प्रकार, डॉ. जैन का सारस्वत व्यक्तित्व बहुव्यापक, बहुविदित एवं बहुजनप्रिय था।
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