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________________ (6) (7) (8) (9) 37 1/2 लाव 2 नाली 30 मुहूर्त 15 अहोरात्र सूर्यप्रज्ञप्ति में वर्णित जैनज्योतिष : Jain Education International : 1 नाली (घटी) 1 मुहूर्त, 48 मिनट, भिन्न मुहूर्त, अंतर्मुहूर्त्त 1 अहोरात्र 24 घंटे 1 पक्ष सूर्यप्रज्ञप्तिकार ने सप्ताह की परिपाटी को स्वीकृत नहीं किया है तथा 15 दिन का पक्ष निर्धारित किया है। इनके दिन रात्रि भेद से दिन के 15 स्वतंत्र नाम और रात्रि के 15 स्वतंत्र नाम उल्लिखित किये हैं। सोमवार, मंगलवार आदि वारों का उल्लेख प्राप्त होता है। 30 मुहूतों के रौद्र, श्वेत आदि नामों से 30 नाम अंकित किये हैं। 30 मुहूर्त्त का 1 अहोरात्र होता है जिसमें 15 दिन के तथा 15 रात्रि के मुहूर्त का विश्लेषण किया है। तिथि के विषय में दिन के और रात्रि की तिथि के नाम अंकित किये हैं। उनकी संज्ञायें (1) णंदे, (2) भद्दे, (3) जए, (4) तुच्छे तथा (5) पुण्णे हैं। ये क्रम से 1 से 5, 6 से 10, 11 से 15 दिन की तिथियाँ वही संज्ञायें एक पक्ष में प्रयुक्त होती हैं। 1 संवत्सर के 12 मास निर्धारित किये हैं। उनके दो भेद किये हैं- (1) लौकिक मास-श्रावण से प्रारंभ होकर आषाढ़ को समाप्त होता है। (2) लोकोत्तर मास के नाम 12 हैं। वे अभिनन्दन से प्रारम्भ होकर 'वनविरोही' संज्ञा तक सूचित हैं। उपसंहार 449 सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति भूगोल व खगोल का महत्वपूर्ण कोष है। डॉ. विन्टरनित्स ने सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति को उनमें उल्लिखित गणित और ज्योतिष विज्ञान को महत्वपूर्ण माना है। डॉ. शुब्रिंग ने जर्मनी की हेमॅवर्ग यूनिवर्सिटी में अपने भाषण में कहा कि 'जैन विचारकों ने जिन तर्कसम्मत एवं सुसंमत सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया वे आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की दृष्टि से भी अमूल्य एवं महत्वपूर्ण हैं। विश्व - रचना के सिद्धान्त के साथ-साथ उसमें उच्चकोटि का गणित एवं ज्योतिष विज्ञान भी मिलता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणित एवं ज्योतिष पर गहराई से विचार किया गया है। अतः सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता। वेबर ने सन् 1868 ई. 'फ्रेंच डी सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक निबंध प्रकाशित किया था। डॉ. आर. शाम शास्त्री ने इस उपांग का 'ए ब्रीफ ट्रान्सलेशन ऑफ महावीराज सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक संक्षिप्त अनुवाद किया है। इस आगम में आये हुए दो सूर्य और दो चन्द्र की मान्यता का 'भास्कर' ने अपने सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में और ब्रह्मगुप्त ने अपने 'स्फुट सिद्धान्त' में खण्डन किया है, किन्तु डॉ. घिबौ ने 'जनरल ऑफ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' में 'ऑन द सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक अपने शोधपूर्ण लेख में प्रतिपादित किया कि ग्रीक लोगों के भारतवर्ष में आगमन के पूर्व उक्त सिद्धान्त सर्वमान्य था। उन्होंने भारतीय ज्योतिष के अति प्राचीन ज्योतिष्य वेदांग ग्रंथ की मान्यताओं के साथ सूर्यप्रज्ञप्ति के सिद्धान्तों की समानता बताई है। मोक्षमार्ग में आगम सर्वोपरि है। उसके हार्द को समझे बिना कोई भी संसारी प्राणी सम्यक्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता । श्रावक और साधु की चर्या के बारे में समग्र परिचय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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