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________________ सूर्यप्रज्ञप्ति में वर्णित जैनज्योतिष 445 के पाये जाते हैं, अत: इसे अर्धमागधी कहा है। इससे मागधी और अर्धमागधी भाषाओं की निकटता पर प्रकाश पड़ता है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी के समीप होने से मागधी को ही अर्धमागधी बताया है। मतबल यह कि पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण यह भाषा अर्धमागधी कही जाती थी। मागधी का शुद्ध रूप इसमें नहीं था। क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्तसार में इसे महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण बताया है। प्राकृत भाषा के मूल दो भेद हैं - कथ्य साहित्य, निबद्ध साहित्य। कथ्यभाषा, जो कि जनबोली के रूप में प्राचीन समय में वर्तमान थी, जिसका साहित्य नहीं मिलता है, किन्तु उसके रूपों की झलक छान्दस् साहित्य में मिल जाती है, वह प्रथम स्तरीय प्राकृत है। द्वितीय स्तरीय प्राकृत भाषा को तीन युगों में विभक्त किया गया है। प्रथम युग', 'मध्य युग' एवं 'अर्वाचीन युग' या 'अपभ्रंश युग'। प्रथम युगीन प्राकृतों में (1) शिलालेखी प्राकृत, (2) प्राकृत धम्मपद की प्राकृत, (3) आर्ष-पालि, (4) प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत और (5) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत। इस युग की समय सीमा ई. पू. 6वीं शती से ईस्वी के द्वितीय शताब्दी तक है। बौद्ध जातकों की भाषा भी इसी युग के अन्तर्गत मानी जा सकती है। दिगम्बर जैन परम्परा यह मानती है कि भगवान महावीर के उपदेशों को जो 12 अंग ग्रन्थों के रूप में संकलित किया गया था उसमें से केवल 12वाँ अंग दृष्टिवाद आगम सुरक्षित रहा और शेष 11 अंग ग्रन्थ विच्छिन्न हो गए। उपलब्ध दृष्टिवाद आगम के आधार पर प्राचीन आचार्यों ने विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थ लिखे जिनमें तीर्थकरों की वाणी सुरक्षित है। 'कषायपाहुड', षट्खंडागम, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ, तिलोयपण्णत्ति, मूलाचार, भगवती आराधना आदि प्राकृत ग्रन्थ जैन आगम परम्परा के ही ग्रन्थ माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि ज्योतिष शास्त्र का सर्वप्रथम वर्णन दृष्टिवाद अंग ग्रन्थ में हुआ था। उसी के आधार पर प्राचीन आगम ग्रन्थों, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार, धवला आदि ग्रन्थों में ज्योतिष विषयक सामग्री उपलब्ध होती है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर की वाणी 12 अंग ग्रन्थों में सुरक्षित हुई थी किन्तु उसमें से दृष्टिवाद नामक 12वाँ अंग ग्रंथ लुप्त हो चुका है और शेष 11 अंग ग्रन्थ तथा उनपर लिखा गया व्याख्या साहित्य जैन आगमों के रूपों में आज उपलब्ध जैन आगम परम्परा के स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आदि ग्रन्थों में भी ज्योतिष के विभिन्न अंगों का वर्णन प्राप्त होता है। इन आगमिक ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत ग्रन्थों की परम्परा में ज्योतिषकरंडक, अंगविज्जा, गणिविज्जा, जोइससार, लग्गसुद्धि, विवाहपडल, करलक्खण, लोक-विजय यंत्र, रिट्ठसमुच्चय, जोईसहीर आदि प्राकृत ग्रन्थों में ज्योतिष शास्त्र का विश्लेषण हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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