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________________ 442 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ शब्द उपयुक्त प्रतीत होते हैं। जैसे y=sin x में sine function का का ग्राफ बनता है और y= F[Xb,t] एक फंक्शलन F का चित्रण करता है। रूपान्तरण करने वाली क्रियाओं का करणों में जो एक समूह या ग्रुप बनता है वह गणितीय परिभाषा से निबद्ध होता है और उसे समाधानित करने वाले प्राकृतिक नियमों में किसी न किसी प्रकार की निश्चलता देखी जाती है, जो किसी न किसी प्रकार की सम्मितीयता (symmetry) लिये हुए रहती है। अनेक प्रकार की कृतियों में तथा कर्मों में यह अलग-अलग प्रकार की सम्मितीयता पाई जाती है। प्रति-सम्मितीयता (antisymmetry) भी पाई जाती है और दोनों मिलकर असम्मितीयता (non-symmetry) लक्षण को प्रकट करते हैं। इसी का आधार उपर्युक्त सिद्धान्त वादों में किया गया है। सिद्धान्त ग्रंथों में इस लक्षण द्वारा शोध किया जाता है। वेदना का विशुद्धि और संक्लेश से सम्बन्ध __ शुभ और अशुभ रूप दो बीथियों के बीच एक अत्यंत सकरी गली है जो या तो विशुद्धि रूप होती है या संक्लेश रूप। हम संक्लेश परिणामों में चल रहे हैं या विशुद्धि रूप परिणामों में, पहिचानना कठिन होता है। दया या क्रूरता में चल रहे हैं यह भी बोध होना कठिन है। विशुद्धि, रूप परिणाम चिंतामणि रत्न के समान है, अतएव बोध ऐसा हो कि विशुद्धि का किनारा पकड़ा दे। असाता के बन्ध योग्य परिणाम को संक्लेश कहते हैं और साता के बन्ध योग्य परिणाम को विशुद्धि कहते हैं (धवल पुस्तक 6/1-9-7, 2/180/6)। क्रोध, मान, माया, लोभ रूप परिणाम-विशेष को संक्लेश कहते हैं। (कषाय प्रा. 4/3-22/30/15/13)। जीव के जो परिणाम बांधे गये अनुभाग सत्कर्म के घात के कारण हैं, उन्हें विशुद्धिस्थान कहते हैं (क. पा./5/4-22/619/380/7)। साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत कषाय स्थानों को विशुद्धिस्थान कहते हैं, और असाता, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, (दुस्वर) और अनादेय आदिक परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत कषायों के उदयस्थानों | स्थान कहते हैं। (धवल. 11/4.2.6.51/208/2)। धवलाकार यह भी कहते हैं कि वर्द्धमान व हीयमान स्थिति को संक्लेश व विशुद्धि कहना ठीक नहीं है। वर्द्धमान व हीयमान कषाय को भी संक्लेश विशद्धि कहना ठीक नहीं है। (जै. सि. को. खंड-3. पृ.-576)। ___भाव विज्ञान के तृतीय अंक में करण लब्धि में विशुद्धि रूप परिणामों में उत्तरोत्तर वृद्धि का गणित स्वरूप "Cybernetics in Jaina Karma Theory" पृ.-23-30 में प्रतिबोधित किया गया है। अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण की अहम् भूमिकाएं यहां प्रत्यक्ष रूप सामने लाने के लिए विभिन्न की विशुद्धियों की पहिचान आवश्यक होती है जो गणितीय रूप में अंक वा अर्थ संदृष्टि आदि रूप से दर्शायी जाती है। पंच लब्धियों में से प्रथम चार लब्धियां तो भव्य वा अभव्य जीव दोनों के विशुद्धि उत्तरोत्तर क्रम में बढ़ती पाई जाती हैं, किन्तु करण लब्धि का पुरुषार्थ केवल भव्य जीव ही कर सकते हैं। कर्म का उदय तो कर्म की परिणति है और कषाय विकल्प जीव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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