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________________ वेदना की गणितीय समतुल्यतादि निश्चलताएँ 439 की प्ररूपणा है। प्रसंगानुसार अविभागप्रतिच्छेद, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तर, स्थान, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समय, वृद्धि और अल्पबहुत्व प्ररूपणा का विस्तृत विवेचन इन 10 अनुयोगद्वारों द्वारा किया गया है। क्षपित कर्मांशिक का लक्षण भी दृष्टव्य है। इसी प्रकार का विवरण यथा प्रायोग्य विधि से क्षेत्र, काल व भाव विधानों में मिलता है। पुस्तक 11 में तदनुसार, प्रथम चूलिका में चार अनुयोगद्वार हैं- स्थितिबंध स्थान, निषेक, आबाधाकाण्डक प्ररूपणाएं और अल्पबहुत्व। द्वितीय चूलिका में स्थितिबन्ध्यवसाय स्थानों की प्ररूपणा में 3 अनुयोगद्वारों द्वारा जीव समुदाहार, प्रकृति समुदाहार और स्थिति समुदाहार निर्दिष्ट विवेचन है। पुस्तक 12 में प्रथम चलिका जो वेदना भाव से संबंधित है. गुणश्रेणि निर्जरा का 11 स्थानों में विवरण दिया गया है। इसी प्रकरण में दूसरी चूलिका में अनुभाग बन्धाध्यवसान स्थान का कथन बारह अनुयोगद्वारों द्वारा वर्णित है- अविभाग प्रतिच्छेद, स्थान, अन्तर, काण्डक, ओजयुग्म, षट्स्थान, अधस्तन स्थान, समय, वृद्धि यवमध्य, पर्यवसान और अल्पबहत्व प्ररूपणाएं। इसी प्रकरण में तीसरी चूलिका में जीव समुदाहार का आठ अनुयोगद्वारों से विचार है- एक स्थान जीव प्रमाणानुगम, निरन्तर स्थान जीव प्रमाणानुगम, सान्तर स्थान जीव प्रमाणानुगम, नानाजीव प्रमाणानुगम, वृद्धि प्ररूपणा, यवमध्य प्ररूपणा, स्पर्शन प्ररूपणा और अल्पबहुत्व। पुनः वेदना प्रत्यय विधान, वेदना स्वामित्व विधान, वेदना-वेदना विधान, वेदना गति विधान, वेदना अनन्तर विधान, वेदना सन्निकर्ष विधान, वेदना परिमाण विधान, वेदना भागाभाग विधान, वेदना अल्पबहुत्व विधान- इन शेष अनुयोगद्वारों द्वारा कुल सोलह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा द्वारा वेदना खण्ड समाप्त होता है। आइन्स्टाइन का सापेक्षण सिद्धान्त - एक अनुभववाद का मार्ग _ आइन्स्टाइन की परिकल्पना में आकाश (space) और काल (time) सापेक्ष हो जाते हैं और विशिष्ट रूप से किन्हीं भी दो क्षेत्रस्थ या गमनशील आदि अवस्थागत अवलोकन कर्ताओं द्वारा किसी भी घटना (जो क्षेत्र और काल के निर्देशकों द्वारा प्ररूपित होती है) का गणितीय सम्बंध इस प्रकार निरूपित किया जाता है जो निश्चल हो। ऐसी दूरीक (metric) का मापदण्ड (jcale) रूपान्तरणों गत होकर भी निश्चल ही रहा आवे तो प्रकृति का नियम न्यायसंगत होता है। मात्र गति न होकर, यदि ऐसे अवलोकन कर्ताओं में त्वरण (acceleration) भी हो, तो यह निश्चलता की समस्या कुछ और जटिल हो जाती है, तथापि गुरुत्वाकर्षण के त्वरणादि से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति सम्बंधी अनेक सूत्र प्राप्त हो जाते हैं जो न्युटन के निरपेक्ष आकाश एवं काल से उपलब्ध न हो सके थे। आइन्स्टाइन ने इस समय तक मात्र सम्मितीय ज्यामितीय वस्तुओं को ही उपयोग में लाया था तथा विद्युच्चुम्बकीय निमित्त को भी गणितीय सापेक्षता की परिधि में लाने के लिए, जहाँ आकर्षण और विकर्षण का समन्वय भी करने हेतु उन्होंने दूरीक (metric) में सम्मितीय (symmetric) और असम्मितीय (non-symmetric) अथवा प्रति-सम्मितीय (anti-symmetric) ज्यामितीय वस्तुओं का उपयोग किया। किन्तु वे केवल एक देश सफल हुए और अनेक समस्याएं एतद्विषयक छोड़ गये। यथा, रूपान्तरणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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