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________________ 438 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ वेदना अब हम कर्म सिद्धान्त के वेदना प्रसंग को लेते हैं। अग्रायणीय पूर्व की पंचम वस्तु, चयन लब्धि के अंतर्गत बीस प्राभृतों में चतुर्थ प्राभूत का नाम "कर्म प्रकृति" है। इनमें कृति व वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वार हैं। इनमें से कृति व वेदना नामक दो अनुयोग द्वार षटखण्डागम के "वेदना" नाम से प्रसिद्ध इस चतुर्थ खण्ड में वर्णित है। विस्तार से धवला टीका पुस्तक नौ, दश, ग्यारह और बारह में दृष्टव्य है। वेदना से संबंधित अन्य ग्रंथों में दी गयी सामग्री के लिए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-3, पृ.-598 आदि दृष्टव्य हैं। वेदना निक्षेप, वेदना नय विभाषणता के पश्चात् वेदना नाम विधान में बंध, उदय व सत्व स्वरूप से जीव में स्थित कर्म रूप पौद्गलिक स्कन्धों में नयाश्रित प्रयोग प्ररूपणा के लिए प्रस्तुत अनुयोगद्वार की आवश्यकता बतलाई गई है। इसके अनुसार नैगम और व्यवहार नय के आश्रय से नोआगम-द्रव्य कर्म वेदना ज्ञानावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की कही गयी है, कारण यह कि यथाक्रम से उनके अज्ञान, अदर्शन, सुख-दुख वेदना, मिथ्यात्व व कषाय, भवधारण, शरीर रचना, गोत्र एवं वीर्यादि विषयक विघ्नस्वरूप आठ प्रकार के कार्य (Functions) देखे जाते हैं जो अनुभावाश्रित तथ्य (empirical facts) हैं। यह वेदना विधान की प्ररूपणा हुई। नाम विधान की प्ररूपणा में ज्ञानावरणीय आदि रूप कर्मद्रव्य को ही "वेदना" कहा गया है। संग्रह नय की अपेक्षा सामान्य से आगे कर्मों को एक वेदना रूप से ग्रहण करने पर समतुल्यता का मूल सिद्धान्त (principle of equivalence) समाविष्ट हो जाता है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना आदि का निषेध कर एक नाम वेदनीय कर्म को ही वेदना स्वीकार किया गया है, क्योंकि व्यवहार में (in behaviour) सुख-दुख के विषय में ही वेदना शब्द प्रयुक्त होता है। शब्दनय की अपेक्षा वेदनीय कर्म द्रव्य के उदय से उत्पन्न सुख-दुख का अथवा आठ कर्मों के उदय से उत्पन्न जीव परिणाम को ही वेदना कहा गया है क्योंकि शब्द नय का विषय द्रव्य सम्भव नहीं है। ___वेदना रूप द्रव्य के सम्बन्ध में उत्कृष्ट, अजघन्योत्कृष्ट तथा जघन्य आदि पदों की प्ररूपणा वेदना द्रव्य विधान है। इसमें पद मीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार बतलाए जाते हैं। इसी प्रकार वेदना क्षेत्र, वेदना काल विधानों में पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारों से वर्णन मिलता है। अंततः इसी प्रकार वेदना भाव विधान का भी विवरण विस्तार से है। सामान्यतः तत्वार्थसूत्र में असाता एवं साता वेदनीय के आस्रव निम्न रूप में दृष्टव्य हैं दु:ख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म परोभय स्थान्यसद्वेद्यस्य।।6.11।। भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमित्ति सद्वेद्यस्य।।6.12।। वेदना द्रव्य विधान में पदमीमांसा में आठ कर्मों की द्रव्य वेदना के विषय में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम-नोविशिष्ट- इन 13 पदों द्वारा विचार किया गया है। यहाँ एक चलिका में योग के अल्पबहुत्व, और योग के निमित्त से आने वाले कर्म प्रदेशों के भी अल्पबहुत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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