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________________ श्री पं. नाथूराम "प्रेमी' की सम्पादन-कला अर्द्धकथानक के संदर्भ में 435 सम्पादित इस कृति के विषय-वैशिष्ट्य को उजागर करते हुए प्रेमी जी ने अंधविश्वास, अध्यात्ममत का विरोध और उसके समर्थक अनेक जैन श्रावकों का परिचय तथा समाज एवं शिक्षा की स्थिति का विस्तार से विवेचन किया है। कुल 675 दोहे एवं चौपाई में समाहित इस कथानक में सज्जन-दुर्जन विवेचन, गुण-दोषों का वर्णन करके बनारसीदास ने अपने वर्तमान जीवन की सार्थकता सिद्ध की है। उन्होंने कुछ भी छुपाए बिना सहज भाव से स्वयं को मध्यम कोटि का मनुष्य स्थापित किया है। जहाँ कहा है जे भाखहिं पर-दोष-गुन, अरु गुन-दोष सुकीउ। कहहिं सहज ते जगत में, हमसे मध्यम जीउ।1668।। ग्रंथ की भाषा के संदर्भ में प्रेमी जी ने बनारसीदास के इस कथन को ही'मध्यदेस की बोली बोलि. गरभित बात कहाँ हिय खोलिा' आधार बनाते हए की बोली को इस ग्रंथ की भाषा माना है। प्रेमी जी ने बोली से तात्पर्य उस समय की सामान्य बोलचाल की भाषा ही लिया है, साहित्यिक भाषा नहीं। यद्यपि बनारसीदास की अन्य रचनाएँ- नाममाला, नाटक समयसार, बनारसीविलास आदि साहित्यिक भाषा में रचित हैं, लेकिन अर्द्धकथानक का विषय आत्मकथा को लिए हुए होने से आडम्बरविहीन सीधी-सादी बोलचाल की भाषा में ही निबद्ध है। आत्मकथा की परम्परा में हिन्दी साहित्य में अर्द्धकथानक प्रथम आत्मकथा है, जिसका उल्लेख पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने अपने 'हिन्दी का प्रथम आत्मचरित' नामक लेख में किया है। डॉ. हीरालाल जैन ने अर्द्धकथानक की भाषा पर विचार करते हुए यह स्वीकार किया है कि इसमें ब्रज एवं अवधी भाषा के शब्द कम तथा उर्द एवं फारसी भाषा के शब्दों का प्रयोग अधिक हआ है। उन्होंने यह स्वीकार किया है कि चतु:सीमा में लगी हुई भाषाओं का सम्मिश्रण इस अर्द्धकथानक में हुआ है। प्राचीन संस्कृत साहित्य (मनुस्मृति 2/21) के अनुसार मध्यदेस की चतु:सीमा वाले प्रांत हैं- उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पूर्व में प्रयाग तथा पश्चिम में पंजाब। चीनी यात्री फाह्यान ने मथुरा से दक्षिण के प्रदेश को मध्यदेस कहा है। अर्द्धकथान मध्यदेश की बोली का रूप प्राचीन हिन्दी के अधिक नजदीक प्रतीत होता है, जिसमें प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश भाषा का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। जैसे-कोई-कोउ, होना-होइ। श्री नाथूराम प्रेमी ने डॉ. हीरालाल जैन द्वारा भाषा-विषयक स्वीकृत मन्तव्य को पुस्तक की उपयोगिता मानते हुए इस कार्य के लिए उनके प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट किया है तथा पुस्तक के अंत में जोड़े गये परिशिष्ट कृति मर्म को समझने में सहायक सिद्ध होंगे, ऐसा स्वीकार किया है। शब्दकोश, नामसूची, युक्तिप्रबोध के मूल उद्धरण, प्रमुख श्रावकों एवं जैन मनीषियों का परिचय ग्रंथ की महत्ता को सिद्ध करते हैं। अंत में कहा जा सकता है कि आदरणीय पं. नाथूराम प्रेमी जी का न केवल हिन्दी जैन साहित्य, बल्कि जैन इतिहास और प्राकत साहित्य को भी विशेष अवद हुआ, जिसके फलस्वरूप प्रद्युम्नचरित, पुरुषार्थसिद्धयपाय, सज्जनचित्तवल्लभ, धर्ताख्यान अर्द्धकथानक जैसे प्राच्य ग्रंथों का उन्होंने सम्पादन किया तथा जैन और हिन्दी जैन साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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