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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
वर्णनों का सजीव विवरण उपस्थित हो जाता है। सम्पादित अर्द्धकथानक के परिशिष्ट में दिए गये विशेष स्थानों के परिचय में लगभग 30 स्थानों का उल्लेख प्रेमी जी ने किया है, उनमें 'अमरसर' नामक स्थान की भौगोलिक स्थिति जयपुर के गोविन्दगढ़ के समीप स्पष्ट की है, उसका सम्बन्ध श्वेताम्बर खरतरगच्छ के जिनकुशलसूरि के साथ स्थापित किया है। इस स्थान पर शेखावतों के आदिपुरुष राव शेखा जी गढ़ बनाकर रहते थे। 'नरवर' नामक स्थान का उल्लेख भी ग्वालियर राज्य के एक प्राचीन स्थान से किया है, जिसका वर्णन ज्ञानार्णव की एक प्रति में भी किया गया है।
प्रेमी जी द्वारा सम्पादित इस कृति से ऐतिहासिक दृष्टि से और भी जानकारी प्राप्त होती है। रचनाकार ने जिन विद्वानों का नामोल्लेख घटना अथवा वृत्तांत विशेष के संदर्भ में किया है, उन सभी विद्वानों का परिचय प्रेमी जी ने परिशिष्ट में विस्तार से दिया है। यह परिचय कथाओं के संदर्भ में भी विशेष महत्व रखता है, जो कथानक के बीच में समाहित है। प्रेमी जी ने सम्पादन शैली में कथानक के वे प्रसंग पाद-टिप्पण के रूप में प्रस्तुत किए हैं, साथ ही अन्य ग्रंथों के सम्बद्ध संदर्भ भी दे दिए, जिससे उनकी सम्पादन- कला विशिष्ट प्रतीत होती है। अर्द्धकथानक के परिशिष्ट में प्रेमी जी ने कुछ जातियों का उल्लेख किया है। पद्य 29 में प्रयुक्त जातियों के उल्लेख का विश्लेषण करते हुए प्रेमी जी कहते हैं- जौनपुर में बसने वाली 36 जातियों को, जो पेशेवर शूद्र जातियां हैं, छत्तीस पउनियाँ कहा है। जायसी के पद्मावत में भी 36 कुरी का उल्लेख अनेक जातियों के लिए हुआ है, किन्तु वहां पर केवल शूद्र वर्ग ही समाहित नहीं है। प्रेमी जी ने इस संदर्भ में यह भी उल्लेख किया है कि जैन साहित्यकार ठक्कर ( 14वीं शताब्दी) ने भी इन 36 जातियों की संख्या का उल्लेख अपने ग्रंथ वर्णरत्नाकर में किया है। एक अन्य उल्लेख में श्रीमाल जाति का वर्णन बनारसीदास जी ने किया है। यद्यपि इस जाति का सम्बन्ध भिन्नमाल से है, किन्तु प्रेमी जी ने इसकी विस्तृत चर्चा करते हुए पुराणों में इसके प्राचीन नामों से (पुष्पमाल, रत्नमाल, श्रीमाल, भिन्नमाल) सम्बन्ध स्थापित किया है और श्रीमाल जाति के अन्तर्गत आने वाले 125 गोत्रों में से कुछ गोत्रों का उल्लेख रचनाकार द्वारा ग्रंथ में किया गया है।
पं. नाथूराम प्रेमी द्वारा सम्पादित अर्द्धकथानक का दूसरा संस्करण अभी प्रकाशित किया जा चुका है। अपनी भूमिका में प्रेमी जी ने इस बात का उल्लेख किया है कि प्रथम संस्करण में तीन हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया था। तत्पश्चात् पं. कैलाशचंद शास्त्री द्वारा ऐशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता तथा स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के ग्रंथ संग्रहालयों में संगृहीत दो प्रतियों के प्राप्त हो जाने पर इनसे भी पाठ संशोधन करके द्वितीय संस्करण का प्रकाशन किया गया है। प्राच्य ग्रंथों के सम्पादन के संदर्भ में यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियाँ यदि अन्य अन्य स्थानों से प्राप्त हो जाती हैं, तो पाठ-संशोधन का अवसर सदैव बना रहता है। प्रेमी जी ने भी पूर्व प्रतियों के पाठ- संशोधन के साथ-साथ इन दोनों प्रतियों के पाठ संशोधन द्वितीय संस्करण में समाहित कर दिए हैं।
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