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श्री पं. नाथूराम 'प्रेमी' की सम्पादन-कला अर्द्धकथानक के संदर्भ में
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ग्रन्थ' भेंट कर सम्मानित किया। आपके बहुमुखी व्यक्तित्व के संदर्भ में हिन्दी साहित्य जगत् के प्रसिद्ध मनीषी जैनेन्द्रकुमार तथा जैनविद्या मनीषी पं. सुखलाल संघवी के विचार विशेष महत्व रखते हैं, जिनसे पूज्य प्रेमी जी के स्वाभिमान से युक्त सादगीपूर्ण व्यक्तित्व की झांकी प्रत्येक पाठक के मन-मस्तिष्क को झंकृत कर देती है। पं. नाथूराम प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ में उनके सुपुत्र पं. हेमचन्द्र मोदी ने उनके विषय में तथा अन्य विद्वानों की दृष्टि में पं. जी का जैसा व्यक्तित्व उकेरा है, उसे इन निम्नांकित बिन्दुओं में समाहित किया जा सकता है
1. सरल किन्तु स्वाभिमानपूर्ण जीवन। 2. विद्यानुरागी। 3. साम्प्रदायिकता से परे स्थित सत्यान्वेषी।
हिन्दी भाषी क्षेत्र में जन्मे पू. पण्डित प्रेमी जी ने अपने जीवन में संस्कृत, प्राकृत के साथ-साथ अंग्रेजी, मराठी, गुजराती इन भाषाओं पर भी पूर्ण अधिकार कर लिया था, जिसके फलस्वरूप साहित्य-जगत् में लगभग 19 से भी अधिक ग्रंथों का सानुवाद सम्पादन किया तथा लगभग 12 स्वतंत्र मौलिक ग्रंथ भी लिखे। मौलिक ग्रंथों में हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास तथा जैन इतिहास से सम्बद्ध कृतियों के लेखन के कारण आपकी छवि जैन इतिहासकार के रूप में विख्यात हो गयी। जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, मुम्बई में कार्य करते-करते आपने 'जैन हितैषी' नामक पत्रिका का लगभग 8 वर्षों तक सफल सम्पादन किया। उसी अवसर पर ई. 1912 में आपने हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय की स्थापना मुम्बई में की तथा स्वतंत्रता नामक प्रथम ग्रंथ के प्रकाशन से उसकी नींव रखी।
पण्डित जी की जैन हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष आकर्षण एवं रुचि थी। उनके द्वारा सम्पादित हिन्दी की जैन कतियाँ इसके प्रमाण हैं। 17वीं शताब्दी में कविवर बनारसीदास द्वारा रचित 'अर्द्धकथानक' का सम्पादन पं. जी के द्वारा किया गया। इस ग्रंथ के सम्पादन में आपकी सम्पादन-शैली एवं कला के नमूने देखे जा सकते हैं। 'अर्द्धकथानक' नामक कृति की भूमिका में दी गई विषय-सामग्री पं. जी की सूक्ष्म सत्यान्वेषी दृष्टि एवं असाम्प्रदायिक चिन्तन की परिचायक है। अर्द्धकथानक में दी गई प्रशस्ति के अनुसार कविवर बनारसीदास ने मनुष्य की उत्कृष्ट आयु 110 वर्ष स्वीकार की
बरतमान नर-आउ बखान, बरस एक सौ दस परवान।।673|| अर्द्धकथानक कृति लेखक बनारसीदास की आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपने प्रारम्भिक जीवन के 55 वर्षों का घटनाबहुल विवेचन किया है। अर्थात् जीवन के आधे कथानक को सं. 1998 में उन्होंने लिखा, लेकिन 110 वर्ष तक वे जीवित न रह सके। उत्कृष्ट जीवनकाल 110 वर्ष का मानने से अर्द्धकथानक में 55 वर्षों का ही विवेचन है, इसलिए पं. प्रेमी जी ने ग्रंथ के शीर्षक को उपयुक्त एवं तर्कसंगत स्वीकार किया है। प्रेमी जी द्वारा सम्पादित अर्द्धकथानक में अनेक प्रकार की सामग्री को समाहित किया गया है, जिसमें जैन इतिहास ही नहीं बल्कि भारतीय भौगोलिक, साहित्यिक, भाषात्मक व सांस्कृतिक
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