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श्री पं. नाथूराम 'प्रेमी' की सम्पादन-कला
अर्द्धकथानक के संदर्भ में
डॉ. जिनेन्द्र जैन*
भारतीय संस्कृति में गुणों का अनुकीर्तन एक स्वस्थ एवं नैतिक संस्कार के रूप में मान्य है। इसी भाव को विद्वत् जगत् में भी स्वीकार किया जाता है, जहाँ विद्वान् को राजा से भी श्रेष्ठ और पूज्य माना गया है। कहा भी गया है 'स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।' विद्वान् के गुण-दोषों को समझने / जानने वाला कोई विद्वान् ही हो सकता है। इसलिए यह उक्ति भी सर्वत्र प्रचलित है कि
विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपरिश्रमम्।
न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम्।। इस उक्ति के अनुसार विद्वान् का अभिनन्दन विद्वानों द्वारा किया जाना निःसंदेह आज की प्रासंगिकता भी है और उपयुक्तता भी।
19-20वीं शताब्दी में जैन साहित्य के संरक्षण एवं उसके उद्धार के लिए अनेक जैन मनीषियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया है। तब जाकर आज हमें उन ग्रंथों का सम्पादित रूप स्वाध्याय एवं अध्ययन के लिए उपलब्ध हो रहा है। उन्हीं अधीति विद्वानों में स्व. पं. नाथूराम 'प्रेमी' का नाम बड़ी श्रद्धा से आज लिया जाता है। भारतीय वाड्.मय के सुप्रसिद्ध महामनीषी जैन इतिहासकार एवं समाज-सुधारक पं. नाथूराम प्रेमी का जन्म सागर जिले के देवरी नामक ग्राम में वि. सं. 1938 (ई. 1881) में हुआ था। पं. पन्नालाल बाकलीवाल, पं. गोपालदास बरैया जैसे जैन मनीषियों के सान्निध्य में रहकर पं. जी ने जैन साहित्य की अपूर्व सेवा की और उसके संरक्षण-संवर्द्धन में अपना सर्वस्व लगा दिया।
साधन सम्पन्नता की दृष्टि से साधारण से जैन परिवार में जन्मे पूज्य प्रेमी जी का जीवन संघर्षों के उतार-चढ़ाव में निरंतर हिचकोले खाता रहा, किन्तु नींव के पत्थर की भांति जैन साहित्य के सम्पादन और जैन इतिहास के लेखन में वे अडिग रहे। जैन मित्र, जैन हितैषी जैसी जैनविद्या की प्राचीन एवं सम्मानित पत्रिकाओं का सफल सम्पादन आपकी सम्पादन-शैली का परिचायक है। आपकी जैन साहित्य और संस्कृति के प्रति सेवा-भावना के फलस्वरूप 1946 ई. में जैन समाज एवं साहित्य-प्रेमियों ने आपको 'प्रेमी अभिनन्दन * एसोसिएट प्रोफेसर, प्राकृत एवं संस्कृत विभाग, जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं - 341306 (राजस्थान)।
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