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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
अर्थ लिखन कों जो मन धरै, ग्रंथ यह हम पूरन करें। सोधन करै सु मन्नालाल, तिनकी मति श्रुत माहि विसाल।। तब दीवानजी मन हरषाय, तिन दोऊ तूं कही बुलाय।
ऋषभदास कैसा मिल होय पूरन ग्रंथ करो तुम जोय।। पं. निगोत्या जी ने इस अधूरी भाषा वचनिका को पूर्ण करके अपनी सरलता को जिस प्रकार निम्नलिखित दोहों में व्यक्त किया है, यह दर्शनीय है
मंदमती हम पंगु ज्यों, ग्रंथ सुमेर समान। सो पूरन कैसे करें, उपज्यों सोच अमान।। वानी समरण पोत चढि, श्रुत समुद्र के पार। हम उतरे बिन कष्ट ही, वानी जग मैं सार।। प्राकृत, संस्कृत ही पढे, जे पंडित मतिमान। मंदमती के हेत यह, भाषा ग्रन्थ निदान।। सज्जन पंडित जे बड़े, तिनसौं विनती एह, जहाँ अर्थ नीक नहीं, तहाँ शुद्ध करि लेह।। बालक हमकू जानियो, जे श्रुत बड़े सुजान। हास्य त्यागिकरि सोधियो, धरम प्रीति मन आन।। देश वचनिका रूप यह, भाषा जो हम कीन। मान वानि कौं त्यागि कैं, धरम काज चित दीन।। लिखत-लिखावत श्रुत विष, लागै दिढ उपयोग।
अशुभ करम तासों झरै, शुभ मन वच तन योग।। इस प्रकार हम देखते हैं कि दो विद्वानों के सहयोग से शौरसेनी प्राकृत भाषा के मलाचार जैसे प्राचीन एक महान ग्रंथ की भाषा वचनिका वि. सं. 1888 में जयपुर में पूर्ण हुई। इससे यह भी स्पष्ट है कि पं. जयचंद जी छावड़ा की मृत्यु (वि. सं. 1881) के तीन-चार वर्ष बाद ही अर्थात् वि. सं. 1885 के आसपास ही पं. नन्दलाल जी छावड़ा का भी स्वर्गवास हुआ होगा। क्योंकि इनके द्वारा अधूरी मूलाचार वचनिका को पूरा करने में कम से कम तीन वर्ष का समय तो अवश्य लगा होगा। इस तरह पुरानी हिन्दी के रूप में प्रचलित जयपुर के आसपास की लोकप्रिय बोली 'ढूंढारी' में लिखित में प्रस्तुत मूलाचार वचनिका के प्रकाश में आ जाने से जहाँ इस साहित्य की श्रीवृद्धि हुई, वहीं हिन्दी गद्य के विकास में अब तक अचर्चित दो और महान् साहित्यकार विद्वान पं. नन्दलाल जी छावड़ा तथा पं. ऋषभदास जी निगोत्या का नाम भी अब हिन्दी और राजस्थानी साहित्य के इतिहास में जुड़ जाने से इनकी मूलाचार भाषा-वचनिका नामक महान् कृति तथा ये दोनों विद्वान भी अमर हो गये।
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