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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
इस मंगलाचरण में पं. नन्दलाल जी ने सर्वप्रथम पंच परमेष्ठी सहित जैनधर्म, जिनवाणी, जिनमंदिर और चैत्य- इन नवदेवताओं की वंदना की है। तदनन्तर शौरसेनी प्राकृत भाषा के महान् ग्रंथ मूलाचार के प्रणेता आचार्य वट्टकेर और इस ग्रन्थ पर संस्कृत भाषा में " आचारवृत्ति" नामक टीका के प्रणेता आचार्य वसुनन्दि स्वामी को नमन कर उद्देश्यपूर्वक मूलाचार ग्रंथ की देशभाषा में वचनिका लिखने की प्रतिज्ञा की है ।
उपर्युक्त दो पद्य पं. नन्दलाल जी के उत्कृष्ट पद्य रचना के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इनके गद्य का वह उदाहरण भी यहाँ प्रस्तुत करना अप्रासांगिक न होगा, जिसमें उन्होंने अपने अच्छे तर्कों द्वारा अनेक प्रश्नों का समाधान करते हुए मुनि-आचार विषयक ग्रंथ गृहस्थों को क्यों पढ़ना चाहिए? तथा प्रस्तुत भाषा वचनिका लिखने का उद्देश्य क्या है- इन सबका ऐसा समाधान प्रस्तुत किया है कि किसी प्रकार की आशंका रह नहीं जाती । प्रस्तुत है उस गद्य का उदाहरण
"इहाँ कोऊ कहै- गृहस्थान कौ तौ व्याकरण - काव्यादिक तथा पुराणादिक पुण्य-पाप का फल वांचना सुननां जोग्य हैं, मुनिधर्म का आचार कौंन सौं वर्णे हैं? अर मुनि आचार कहाँ है? गृहस्थनि कौं मुनिधर्म के ग्रंथ वांचना, भाषा करनां जोग्य नांही ।
ताका समाधान जीव का हित मोक्ष है। ताके कारण संवर निर्जरा हैं। - गुप्ति समिति-धर्म-अनुप्रेक्षा- परीषहजय - चारित्र - तप रूप जो मुनिधर्म, तातैं होय हैं, जैसा निर्णय द्रव्यानुयोग - अध्यात्म, स्याद्वाद ग्रन्थनि में प्रमाण-नय-निक्षेप अनुयोगनतैं कीया है। यातें मुख्य उपादेय तो मुनिधर्म ही है और ग्रन्थनि का सीखना पढ़ना बहुत होय, अर इस धर्म का ज्ञान - श्रद्धान न होय तो अज्ञानी ही कहिए। अर इस धर्म का ज्ञान - श्रद्धान होय, अर व्याकरण-काव्यादिक थोरा ही पढ्या होय तो ज्ञानी ही कहिये। अर मुनिधर्म के ज्ञान - श्रद्धान बिना सम्यक्त्व कैसें होय? अर मुनि तौ धर्मात्मा है ही, परन्तु गृहस्थ जैसे ग्रन्थ सुनैं बिना धर्म-अधर्म का भेद तथा गुरु-कुगुरु का भेद तथा जैन- अन्य लिंग का भेद तथा दिगम्बर-श्वेताम्बर का भेद तथा पात्र कुपात्र अपात्र का भेद कैसे जानें? अर बिना जानैं पूजा, स्तवन, नमस्कार, भक्ति, विनय, दान, वैयावृत्य रूप उपासनां कैसें करै? अर उपासना बिना गृहस्थ धर्म कहाँ? अर गुरु, अर कुगुरु सर्वकौ समान जानैं तो मिथ्यात्व का दोष लागें । तातैं गृहस्थनि कौ मुनिधर्म का स्वरूप अवश्य निर्णय करनां । अर इस धर्म सम्बन्धी ग्रन्थ का व्याख्यान अवश्य करनां । औसा विचारकरि या ग्रन्थ की भाषा - वचनिका आरम्भ किया है। " पंडित नन्दलाल जी द्वारा मूलाचार महाग्रन्थ की भाषा वचनिका में लिखित गद्य का यह उदाहरण अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण एवं परिपूर्ण तथा पर्याप्त है। मूलाचार भाषा - वचनिका की अन्त्य प्रशस्ति में पं. ऋषभदास जी निगोत्या ने लिखा है कि"साधुतणें आचार कौ भाषा ग्रंथ न कोय । तातैं मूलाचार की भाषा जो अब होय ।। तो सबही वाचै पढै समुझे मुनि आचार । परम दिगम्बर रूप कौं जानैं सकल विचार || तब उद्यम भाषा तजैं करण लगे नंदलाल ।
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