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अज्ञात जैन विद्वान पं. नन्दलाल जी छावड़ा का साहित्यिक अवदान
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में अजमेर में सेठ सा. की कोठी के पास स्थित विशाल भव्य महापूत चैत्यालय के शास्त्र भण्डार पहुंचे तो वहां भी इसी मूलाचार भाषा वचनिका की एक अन्य हस्तलिखित प्रति मिल गयी। जिसकी फोटोकापी हमें सेठ सा. श्री निर्मलचन्द जी सोनी के सौजन्य से प्राप्त हो गयी। अब हम दोनों ने इन दोनों प्रतियों के साथ ही वसुनन्दि की संस्कृत आचारवृत्ति की मेरे पास सुरक्षित मूल हस्तलिखित प्रति की जीराक्स प्रति थी, उसके आधार पर मिलान करके इसका सम्पादन कार्य करने लगे, इसी बीच परमपूज्य आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज का सम्मेद शिखरजी की ओर यात्राक्रम में ससंघ बनारस आगमन हुआ। उस समय पूज्य उपाध्याय जी भरतसागर जी को यह शास्त्र और लम्बे समय से चल रहा सम्पादन आदि कार्य दिखाया तो उन्होंने इसे भा. अनेकान्त विद्वत परिषद से प्रकाशित कराने का आश्वासन दिया और 1996 में परमपूज्य भरतसागर जी महाराज एवं पूज्यनीया विदुषी आर्यिका स्याद्वादमती माताजी के शुभाशीष से दीर्घ परिश्रम के बाद इसका प्रकाशन पूर्ण हुआ। इधर उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से संचालित उ. प्र. संस्कृत अकादमी, लखनऊ ने इसके श्रेष्ठ संपादन कार्य पर सन् 1998 में इस ग्रन्थ पर विशेष पुरस्कार के साथ ग्यारह हजार की राशि एवं प्रशस्ति पत्र से राजभवन में आयोजित पुरस्कार समारोह में मा. राज्यपाल महोदय ने मुझे और श्रीमती मुन्नी जैन को सम्मानित किया।
इस प्रकार एक श्रेष्ठ विद्वान पं. नन्दलालजी की अद्यावधि अप्रकाशित एक महान कृति पहली बार जब सामने आयी तो प्रायः सभी मुनिसंघों, विद्वानों और समाज के स्वाध्याय प्रेमी श्रावकों ने इस शास्त्र का बहुमान से स्वागत किया। इसी माध्यम से पं. नन्दलाल जी के महान् व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पहली बार पाठकों का परिचय हुआ। यद्यपि प्राचीन आचार्यों और विद्वानों ने ग्रन्थों का लेखन तो किया किन्तु आत्मश्लाघा के भय से अपने जीवन के विषय में क्रमबद्ध और विस्तार से किसी ने नहीं लिखा। यत्र-तत्र के उल्लेखों आदि के आधार पर ही उनका परिचय लिखा जाता है।
जहाँ तक पं. नन्दलाल जी का प्रश्न है, तो उन्होंने भी अपने विषय में विशेष कुछ भी नहीं लिखा है, इनके पिता पं. जयचंद जी छावड़ा एवं इनके मित्र और शिष्य पं. ऋषभदास जी निगोत्या ने ही इनके विषय में कुछ सूचनाएं दी हैं। आपके नाम के साथ 'कवि' उपाधि का भी उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आपकी कोई न कोई पद्यमय महान् कृति भी होनी चाहिए, किन्तु अब तक उपलब्ध नहीं हुई। प्रयत्नपूर्वक आपकी एकमात्र गद्य कृति "मूलाचार भाषा वचनिका" ही प्राप्त हो सकी है। इसी ग्रन्थ के मंगलाचरण के रूप में हम इनकी कविता के उत्कृष्ट उदाहरण देख सकते हैं। वे इस प्रकार हैं
बंदौ श्री जिनसिद्धपद आचारिज उवझाय। साधु-धर्म जिनभारती जिनगृह चैत्य सहाय।। वट्टकेर स्वामी प्रणमि नमि वसुनंदी सूरि। मलाचार विचारिक भाषौं लषि गुणभूरि।।
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