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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
का अध्ययन करते समय उन ग्रन्थों की अन्त्य प्रशस्ति या अन्य किसी न किसी प्रसंग में पं. छावडा जी अपने सुयोग्य विद्वान पुत्र पं. नन्दलालजी का गौरव के साथ उल्लेख अवश्य करते, किन्तु न तो इनकी किसी कृति का उल्लेख मिलता था और न विशेष परिचय ही, किन्तु सन् 1990 ई. वर्ष का वह दिन बड़ा ही शुभ कहा जायेगा, जबकि मैं सपरिवार राजस्थान और बुंदेलखण्ड के तीर्थों की वन्दनार्थ यात्रा के क्रम में अतिशय क्षेत्र तिजारा पहुंचा। संयोग से श्रुतपंचमी का वह शुभ दिन था। अत: तिजारा (राजस्थान) में स्थित प्राचीन दि. जैन मंदिर, जिसकी प्रतिष्ठा जयपुर के ही स्वनामधन्य पं. सदासुखदास जी के सानिध्य में कराई गई थी, इसमें जिनवाणी पूजन का विशेष कार्यक्रम था। मैं भी सपरिवार श्रुतपंचमी पर शास्त्रों की पूजन हेतु यहां पहुंचा। मंदिर की बड़ी वेदी पर बीचों-बीच काफी संख्या में हस्तलिखित शास्त्र विराजमान थे, जिनकी पूजन हो रही थी। अचानक मेरी दृष्टि बीच में रखे एक बड़े शास्त्र पर गयी, जो वेस्टन में लिपटा हुआ था, जिसमें ऊपर "मूलाचार" लिखा था। चूंकि यह ग्रंथ दिगम्बर जैन मुनियों के आचार धर्म का प्रतिपादक आचार्य वट्टकेर कृत प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ है, जिसके समीक्षात्मक अध्ययन विषय पर शोधकार्य करने पर मुझे काशी हिन्दू विश्विद्यालय ने "मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन" नामक विशाल शोधग्रन्थ पर पी-एच. डी. की शोध उपाधि सन् 1977 में प्रदान की थी। अत: इस ग्रन्थ को देखने-समझने और पढ़ने की इच्छा होना स्वाभाविक है।
हमने जब इस हस्तलिखित मूलाचार शास्त्र के कुछ पृष्ठों को पढ़ा और अन्त्य प्रशस्ति देखी तो आश्चर्य में पड़ गया, क्योंकि जिन विद्वान की प्रशंसा मात्र सुनते-पढ़ते थे, उन पं. नंदलाल जी छावड़ा द्वारा मूलाचार जैसे शौरसेनी प्राकृत भाषा के महान ग्रन्थ और इसकी आ. वसुनन्दि स्वामी द्वारा लिखित संस्कृत टीका-"आचारवृत्ति" के आधार पर यह वचनिका पुरानी हिन्दी के रूप में जानी मानी जयपुर की ढूंढारी भाषा में लिखी हुई थी। लगातार दो-तीन घंटे तक यत्र-तत्र के उपयोगी अंश इस शास्त्र के पढ़ने पर मेरी इच्छा अब तक अज्ञात एवं अप्रकाशित इस दुर्लभ महान् शास्त्र के संपादन और प्रकाशन की हुई। मेरी विदुषी धर्मपत्नी डॉ. श्रीमती मुन्नी पुष्पा जैन ने मुझे प्रोत्साहित करते हुए कहा कि यदि इस कार्य की जिम्मेदारी लोगे, तो मैं भी इस बृहद् ग्रंथ की सुवाच्य प्रतिलिपि करने और अन्य प्रतियों से मिलान करने-कराने आदि में आपका सहयोग करूँगी। इस प्रोत्साहन के बाद मैंने इस मंदिर के उदारमना पदाधिकारियों से इस शास्त्र की प्राप्ति हेतु प्रस्ताव रखा तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। इस श्रुतपंचमी जैसे पवित्र पर्व पर ऐसे दुर्लभ ग्रन्थ की प्राप्ति और इसके संपादन कार्य के संकल्प से बढ़कर, माँ जिनवाणी की यथार्थ पूजा और क्या हो सकती है?
इसी तीर्थयात्रा के क्रम में जब हम कुण्डलपुर (दमोह म. प्र.) तीर्थक्षेत्र की वन्दनार्थ पहुंचे, तो वहाँ ससंघ विराजमान परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को जब यह शास्त्र दिखाया तो वे भी आश्चर्य में बोले-अरे! अभी तक यह शास्त्र कहाँ छिपा था। हमने जब उन्हें पूरा विवरण सुनाकर इसके सम्पादन कार्य की चर्चा की तो उन्होंने इस कार्य हेतु हमें सहर्ष शुभाशीष दिया। मिलान हेतु हम इसकी दूसरी प्रति की तलाश
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