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________________ अज्ञात जैन विद्वान पं. नन्दलाल जी छावड़ा का साहित्यिक अवदान तिनसम तिनकै सुत-भये, बहुग्यानी नंदलाल । गाय-वत्य जिम प्रेमधरि, बहुत पढाए बाल ।। पं. जयचंद जी के समय जहाँ शास्त्र चर्चायें श्रावकों और विद्वानों के मध्य निरंतर होती थीं, वहीं जैनधर्म के कुछ सिद्धान्तों को लेकर अन्यान्य धर्मानुयायी विद्वानों से शास्त्रार्थ भी होते थे। ऐसे प्रसंगों में जहाँ भी शास्त्रार्थ हेतु चुनौती आती थी, पं. जयचन्द जी युक्तिशास्त्र और तर्कशक्ति में प्रवीण, प्रखर वक्तृत्व शैली, गहन विद्वत्ता और प्रभावक व्यक्तित्व के धनी अपने विद्वान सुपुत्र पं. नन्दलालजी को शास्त्रार्थ हेतु भेज देते थे और वे उस शास्त्रार्थ में प्रतिपक्षी को पराजित कर जैनधर्म की सदा विजयपताका फैला देते थे। ऐसे यशस्वी विद्वान पर समस्त जैन समाज को गौरवशाली होना स्वाभाविक है। 421 एक बार जैनधर्म और इसके सिद्धान्तों को जानने-समझने के लिए कुछ अंग्रेजों ने तथा कुछ अन्य मतानुयायी विद्वानों ने जैनधर्म के विषय में अनेक प्रश्न दिल्ली की जैन समाज के समक्ष समाधान हेतु रखे। किन्तु उस समय उन प्रश्नों का सटीक उत्तर देने वाला कोई विद्वान दिल्ली में उपलब्ध नहीं था, अतः सभी की सम्मत्ति से जयपुर के तत्कालीन विख्यात विद्वान पं. जयचन्द जी छावड़ा के पास उन प्रश्नों को समाधान हेतु भिजवाया। इन्हें पिता-पुत्र दोनों ने मिलकर विभिन्न शास्त्रों के आधार पर इनका यथोचित ऐसा समाधान प्रस्तुत किया कि जिन्हें पढ़कर सभी प्रश्नकर्त्ता अंग्रेज तथा दिल्ली की समस्त जैन समाज झूम उठी। ऐसे थे ये दोनों विद्वान। फिर भी बहुत आश्चर्य होता है कि इन विद्वानों को हुए बहुत लम्बा समय नहीं हुआ किन्तु इनके द्वारा लिखित साहित्य आदि के अतिरिक्त इनके व्यक्तित्व और जीवन के विषय में कोई विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होते और न ही इनके कृतित्व आदि के आधार पर उन प्रसंगों के सूत्र इकट्ठे करने या उन्हें ढूंढने अथवा इस दिशा में अनुसंधान का कोई अब तक प्रयास ही किया गया, जिनके आधार पर उनका जीवन परिचय रेखांकित किया जा सके। इधर जितना बन सका, वह प्रस्तुत निबंध मैंने स्वयं तथा मेरी धर्मपत्नी श्रीमती डॉ. मुन्नीपुष्पा जैन ने अपने "हिन्दी गद्य के विकास में जैन मनीषी पं. सदासुख दास का योगदान" नामक शोधप्रबन्ध में लिखा, जो कि पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, करौंदी, वाराणसी-5 से सन् 2002 में प्रकाशित हुआ है। कृतित्व जैसा कि पूर्व में यह उल्लेख किया ही जा चुका है कि अभी तक पं. नन्दलाल जी की विद्वत्ता की प्रशंसा के कुछ उल्लेख ही मिलते थे, किन्तु उनकी कोई कृति नहीं । पर जब से इनके द्वारा लिखित "मूलाचार भाषा वचनिका" नामक ग्रन्थ पहली बार हम दोनों के द्वारा सम्पादित होकर प्रकाश में आया है, तब से जैन साहित्य और इनके लेखक विद्वानों की इतिहास परम्परा में पं. नन्दलाल जी का भी नाम जुड़ गया है। मूलाचार भाषा वचनिका एवं इसके सम्पादन का इतिवृत्त आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य पूज्यपाद आदि अनेक महान् आचार्यों के क्रमशः प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के अनेक ग्रंथों की पं. जयचंद जी छावड़ा कृत भाषा वचनिकाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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