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अज्ञात जैन विद्वान पं. नन्दलाल जी छावड़ा का
साहित्यिक अवदान
प्रो. (डॉ.) फूलचन्द जैन प्रेमी*
जैन काशी के नाम से प्रसिद्ध जयपुर नगरी प्रारम्भ से ही जैन शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन, लेखन एवं आध्यात्मिक शैली के रूप में प्रसिद्ध रही है। यहाँ जयपुर शैली के पं. टोडरमलजी. पं. जयचन्दजी छावडा. पं. सदासखजी कासलीवाल जैसे विद्वान हुए हैं, जो जैनविद्या और उसकी विशाल परम्परा की रक्षा और अभिवृद्धि के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे। जयपुर की विद्वत्परम्परा की एक यह भी विशेषता रही है कि गुरु-शिष्य परम्परा से तो विद्वान तैयार होते ही थे, साथ ही विद्वान अपने पुत्रों को भी जैन शास्त्रों का अध्ययन कराके विद्वान बनाने में महान गौरव का अनुभव करते थे और अपने जीवन की सार्थकता मानते थे। इसी विद्वत्परम्परा में प्रायः अब तक अज्ञात किन्तु अब एक यशस्वी विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके पं. कवि श्री नन्दलाल जी छावड़ा का नाम गौरव के साथ लिया जाने लगा है। पं. नंदलाल जी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओं एवं प्राचीन जैन शास्त्रों के मर्मज्ञ प्रसिद्ध विद्वान पं. जयचंद जी छावड़ा (जन्म वि. सं. 1795, मृत्यु वि. सं. 1881) के सुयोग्य विद्वान सुपुत्र थे, जिन्होंने आचार्य वट्टकेर स्वामी कृत "मूलाचार" नामक श्रमणाचार विषयक प्राकृत भाषा के महाग्रंथ पर आचार्य वसुनन्दि प्रणीत संस्कृत टीका आचारवृत्ति के आधार पर भाषा वचनिका लिखकर अपने को अमर कर लिया।
यद्यपि पं. नन्दलाल जी का इसके अन्तर्गत विशेष साहित्य अभी सामने नहीं आया है, पर हो सकता है एक दो अन्य कृतियां और भी हों, किन्तु कुछ उल्लेखों से स्पष्ट है कि आप अपने पिता पं. जयचन्दजी छावड़ा के लेखन कार्य में विशेष सहयोग करते रहे और यही कारण है कि थोड़े समय में ही पं. जयचन्दजी अनेक प्राकृत-संस्कृत भाषा के प्राचीन, जटिल
और कठिन बड़े ग्रन्थों की टीकायें लिख सके। इस तरह आत्मख्याति से दूर पं. नन्दलाल जी ने पठन-पाठन, शास्त्रार्थ, व्याख्यान, प्रवचन, स्वाध्याय आदि स्व-पर कल्याण के कार्यों में ही अपने को अधिक व्यस्त रखा। जो भी हो यह स्पष्ट है कि पं. नन्दलाल जी जयपुर की विद्वत्परम्परा एवं शैली के एक विद्वत्रत्न थे, किन्तु अब तक उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अज्ञात रहना कम आश्चर्यकारी नहीं है। सम्भवतः यदि हम लोगों द्वारा इनका मूलाचार भाषा * प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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