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अज्ञात जैन विद्वान पं. नन्दलाल जी छावड़ा का साहित्यिक अवदान
वचनिका जैसा विशाल ग्रन्थ सम्पादित होकर प्रकाशित न होता तो प्रस्तुत महान् विद्वान का व्यक्तित्व और कृतित्व अब तक अज्ञात ही रहता। एक जिनवाणी सेवक पिता के समक्ष ही उसका बेटा भी उसी परम्परा का महान् विद्वान बन जाये, तो उस पिता के लिए इससे बढ़कर खुशी और जीवन की सार्थकता क्या हो सकती है?
व्यक्तित्व और कृतित्व
सर्वार्थसिद्धि, समयसार, अष्टपाहुड, प्रमेयरत्नमाला, ज्ञानार्णव जैसे संस्कृत - प्राकृत भाषा के लगभग पन्द्रह श्रेष्ठ ग्रन्थों पर ढूँढारी जैसी सरल भाषा में भाषा वचनिकाओं के कर्त्ता जयपुर के सुप्रसिद्ध विद्वान पं. जयचन्दजी छावड़ा के सुपुत्र और श्री मोतीराम जी छावड़ा फागई ( जयपुर ) ग्राम निवासी के सुपौत्र पं. नन्दलाल जी छावड़ा की निश्चित जन्मतिथि का उल्लेख तो नहीं मिलता किन्तु पं. जयचन्दजी की जन्मतिथि वि. सं. 1795 के आधार पर तथा पं. जयचन्द जी के 1- पं. नन्दलाल जी, 2- दीवान सदासुख जी छावड़ा (दीवानकाल वि. सं. 1857 से 1867 ) तथा एवं 3 - दीवान कृपाराम जी छावड़ा (दीवानकाल वि. सं. 1869 से 1875 तक) इन तीन सुपुत्रों के नामोल्लेख (खण्डेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास- डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, पृष्ठ 214) के आधार पर पं. नन्दलाल जी का जन्म वि. सं. 1820 के आसपास में सम्भव है। क्योंकि ये अपने सभी भाईयों में ज्येष्ठ थे। यह भी एक पिता के जीवन की बहुत बड़ी साधना और सार्थकता है कि वह अपनी पूरी सनीत को यशस्वी बनाये। पं. नन्दलालजी के पिता पं. जयचंद जी छावड़ा ने अपने सभी पुत्रों को स्वयं पढ़ा-लिखाकर बहुत ही सुयोग्य बनाया। अतः आप ही अपने पुत्रों के पिता भी थे और गुरु भी थे। अपने ज्येष्ठ पुत्र का विद्या के प्रति विशेष अनुराग होने से पं. जयचन्द जी छावड़ा ने उन्हें प्रारम्भ से ही अपने साथ रखकर निरंतर जैन शास्त्रों का गहन अभ्यास कराके इनमें पारंगत किया। तत्कालीन पं. सदासुखदास जी कासलीवाल, पं. मन्नालाल जी सांगाका तथा पं. नन्दलालजी तथा अन्यान्य अनेक विद्वानों की यह समस्त शिष्य मंडली एक साथ बैठकर शास्त्रों का अध्ययन करती थी। अपने पुत्र पं. नन्दलाल जी की प्रतिभा को देखकर आपको बड़ी प्रसन्नता होती थी।
पं. जयचन्द जी छावड़ा ने शास्त्र लेखन का कार्य अपनी पचास वर्ष की उम्र के आसपास दीर्घ अनुभव के बाद किया। इसीलिए इनके लेखन में प्रौढ़ता की स्पष्ट झलक सर्वत्र देखने को मिलती है। साथ ही एक कारण यह भी है कि इनके पुत्र पं. नन्दलाल का भी इनके लेखन में भरपूर सहयोग रहता था । ऐसे सुयोग्य विद्वान पुत्र पर गौरवयुक्त होना स्वाभाविक है। तभी तो उन्होंने बड़े गर्व के साथ आचार्य पूज्यपादकृत (सातवीं शती के ) सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ की वचनिका में लिखा है
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लिखी यहै जयचन्द नै सोधी सुत नन्दलाल । बुधलखि भूलि जु शुद्धकरी बांची सिखैवो बाल || नन्दलाल मेरा सुत गुनी बालपने तैं विद्या सुनी। पण्डित भयौ बड़ौ परवीन ताहू ने यह प्रेरण कीन ।।
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