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________________ 24 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ संस्थान भवन के समीप से निकलने वाले पथिक भी खड़े होकर उन्हें ध्यान-पूर्वक सुनने लग जाते। एक समय था कि कुछ समय के लिए संस्थान में शिक्षक की भारी कमी हो चली थी, उस बीच वे लगातार पाँच-पाँच वर्ग लिया करते थे। एक अनुशासनप्रिय प्रशासक होने के साथ ही वे एक कोमल हृदय उदार अभिभावक भी थे। जब कभी छात्रावास में शासनहीनता का पता उन्हें लगता, वे छात्रावास-अधीक्षक को बुलाकर उस दिन छात्रावास में ही सामूहिक चाय-व्यवस्था करने को कहते और उसके लिए अपनी जेब से उन्हें अर्थराशि भी उपलब्ध करा देते। छात्रावास में उनकी उपस्थिति से ही सारी समस्याएँ अपने आप सुलझ जाती। परीक्षा-फार्म भरने के समय अज्ञानता अथवा असमर्थता के कार किसी छात्र के पास पैसे की कमी रहती, वे उसे अपनी ओर से पूरा कर देते और उसे वापस न करने की मधुर चेतावनी भी दे देते। उस समय बिहार विश्वविद्यालय के अधीन कॉलेजों के प्रायः सभी विभागों के शिक्षक तथा स्नातकोत्तर के छात्र उनके सरस और सारगर्भित व्याख्यान सुनने को उत्सुक रहा करते थे। उनके इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही प्राकृत भाषा और जैनशास्त्र की ओर शिक्षा के क्षेत्र में रुचि जगी और यह संस्थान अतिलोकप्रिय हो पाया। डॉ. जैन की छत्रछाया में रहकर ही डॉ. योगेन्द्र सिकदर, डॉ. ऋषभचन्द्र जैन, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, डॉ. विमल प्रकाश जैन आदि विद्वान अपने-अपने क्षेत्र में सम्मानित हए। उनके निर्देशन में यह संस्थान बड़े-बड़े विद्वानों के लिए आदर्श केन्द्र बन चुका था, जहाँ परामर्श हेतु डॉ. अल्टेकर, डॉ. उपाध्ये, पं. नाथूराम प्रेमी जी आदि का आना-जाना हुआ करता था। डॉ. हीरालाल जी जैन के पश्चात् संस्थान में दूसरे जिस शिखर पुरुष का नाम विशेष उल्लेखनीय है, वे थे डॉ. नथमल जी टाटिया। संस्थान के निदेशक पद को सुशोभित करने का समय इन्हें सर्वाधिक प्राप्त हुआ। इनके कुशल-निर्देशनकाल में ही संस्थान मुजफ्फरपुर के किराये के भवन से वासोकुण्ड के अपने भव्य भवन में स्थानान्तरित हुआ और दशाधिक वर्षों तक विकास की सभी दिशाओं की ओर अग्रसर होता रहा। इस कालावधि में राजभवन से एकाधिक बार दर्शनशास्त्र के दिग्गज विद्वान भी निरीक्षण हेतु भेजे गये और निदेशक से मिलने के बाद पूर्ण संतुष्ट होकर लौटे। इस प्रकार राज्य के सभी शोध संस्थानों में इसका सर्वाधिक लोकप्रिय स्थान रहा। इनके कुशल अभिभावकत्व में प्रो. अनन्त लाल ठाकुर, डॉ. राम प्रकाश पोद्दार, डॉ. देवनारायण शर्मा जैसे अपने-अपने विषय के मर्मज विद्वान अध्ययन-कार्य करते थे। दर्गम दर्शन के संस्कत ग्रन्थों में मार्गदर्शन के लिए डॉ. सातकडि मखर्जी (पर्व निदेशक. नव नालन्दा महा विहार), प्रो. ब्रह्मानन्दजी तथा प्राचीन इतिहास के लिए डॉ. डी.एस. त्रिवेद की उपस्थिति भी संस्थान को महिमामंडित करती रही। इस बीच तीसरे शिखर पुरुष के रूप में प्राकृत के प्रोफेसर डॉ. जगदीशचन्द्र जी जैन का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। इनका प्राकृत साहित्य का इतिहास एक मौलिक ग्रन्थ के रूप में विद्वानों के बीच समादृत है। इस वृहद् ग्रन्थ की पाण्डुलिपि डॉ. जैन ने संस्थान में रहकर तैयार की थी। ये मूलतः दर्शन के विद्वान होते हुए भी प्राकृत एवं हिन्दी-साहित्य भज विद्वान अध्यय न देशक, नव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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