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________________ 394 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ उसका अनेक मंदिरों के रथोत्सव पर प्रभाव बताना ऐतिहासिक खींचातानी ही मानी जाए तो कुछ अनुचित नहीं होगा। इसके विपरीत जैन धर्म केरल में आज भी जीवित है। उसकी रथोत्सव की परंपरा बहुत प्राचीन है। भादों में दस दिनों के पयूषण पर्व के अंत में, महावीर जयंती तथा नवीन मंदिर या मूर्ति की प्रतिष्ठा आदि अवसरों पर रथयात्रा निकाली जाती है। पिछले दशक में उत्तर भारत में अनेक स्थानों पर गजरथ निकले हैं। इन रथों में हाथी जोते जाते हैं और इन ऊंचे रथों में तीर्थकर प्रतिमा विराजमान की जाती है। केरल जैसे हाथी बहुत आश्चर्य नहीं। हाल ही में गोमटेश्वर रथ तथा तीर्थवंदना रथ सारे भारत में घूमा था। इन तथ्यों को देखते हुए जैन परंपरा पर भी विचार किया जाना चाहिए। पेरियपुराणम् ईसा की छठी शताब्दी में तमिलगम् में जैनधर्म इतना अधिक व्याप्त था कि शैव धर्म के अनुयायियों को इस धर्म के प्रभाव तथा जैनधर्म के अनुयायी "दुष्ट राजाओं (Evil kings)" के प्रभाव से उस समय के तमिल देश को मुक्त कराने की चिंता हुई। इनमें सबसे प्रमुख नाम ज्ञानसंबंदर का है। बताया जाता है कि इन्होंने जैन मुनियों, पंडितों को वाद-विवाद में हराया और कुछ चमत्कार दिखाए। इन चमत्कारों में एक यह भी था कि शैव या वैदिक ग्रंथ तो पानी में डालने पर तैरते हुए ऊपर आ गए और जैनों के ग्रंथ पानी में डूब गए। समय है कि ऐसी घटना केरल में भी घटी हो और यही कारण है कि केरल में जैन ग्रंथों का अभाव है। जैन पल्लव राजा महेंद्रवर्मन प्रथम को शैव बना लिया गया। उसने जैनों पर अत्याचार किए और बहुत-से जैन मंदिरों को शैव मंदिरों के रूप में बदल दिया। इसके बाद संबंदर ने जैन पांडय राजा सुंदरर की कूबड़ चमत्कारिक रूप से सीधी कर दी। यह कार्य जैनों से नहीं हो सका था ऐसा कहा जाता है वह भी शैव हो गया। उधर धर्मसेन नाम के 25 वर्षों तक जैन आचार्य पद पर रह चुके मठाधीश की उदर पीड़ा भी शिव की कृपा से उनकी बहिन ने ठीक करा दी। वे शैव संत बन गए और अप्पर कहलाने रर ने एक ही दिन में बैगे नदी के किनारे 8.000, (आठ हजार) जैन मुनियों को शूली पर चढ़ा दिया। इस कांड पर दक्षिण भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. नीलकंठ शास्त्री ने लिखा है, "There is no reason to believe that, even in those days of intense religious strife, intoleration descended to such cruel barbarities." (p.413) पेरियपुराण तो यही कहता है कि जैन स्वयं ही शली पर चढ के वे चमत्कार नहीं कर पाए थे। वास्तव में उन्होंने इस मनिधर्म का पालन किया होगा कि प्राणों का संकट आने पर भी बदले का कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए। सोचना चाहिए कि मेरे अशुभ कर्मों के कारण यह संकट आया है। ___ इस घटना का उत्सव तमिलनाडु में मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में मनाया जाता है। एक चित्र भी था, सुना है कि अब मिटा दिया गया है। इसी प्रकार का एक उत्सव केरल के शुचींद्रम मंदिर में भी होता है। वहां बैरागी को खून से सनी तलवार दिखानी पड़ती है। उक्त तीनों एवं अन्यों के प्रयास से शिव की भक्ति के गीतों से संयोजित जो पंथ चला उसे शैवसिद्धांत कहते हैं। इस मत में जो 63 संत हुए हैं उनका विवरण पेरियपुराणम् में है। यह पुराण संभवतः 12वीं सदी में चोल राजा कुलोत्तुंग की प्रेरणा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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