________________
392
स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
लिच्छवि राजा कुल अठारह गणराजा अमावस्या के दिन आठ प्रहर का प्रोषधोपवास करके वहां रहे हुए थे। उन्होंने यह विचार किया कि ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है अतः हम द्रव्योद्योत करेंगे अर्थात् दीपावली प्रज्ज्वलित करेंगे। तभी से दीपावली का प्रारंभ हुआ।
ईस्वी सन् 784 में रचित जैन हरिवंशपुराण में आचार्य जिनसेन प्रथम ने स्पष्ट लिखा है कि निर्वाण के समय देवों और मनुष्यों ने भगवान के शरीर की पूजा की और दीप प्रज्वलित किए। उनके शब्दों में
ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरै-दीपितया प्रदीप्तया। तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपितताकाशतला प्रकाशते।।19।। ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते।
समुद्यमः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेंद्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।।20।। अर्थ- उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलायी हुई देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। उस समय से लेकर भ के निर्वाण कल्याण की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् उन्हीं की स्मृति में दीपावली का उत्सव मनाने लगे। उपर्युक्त दोनों उद्धरणों के लिए लेखक पं. बलभद्रजी का आभारी हैं।
भारत के जैन आज भी उक्त तिथि को प्रातः निर्वाणोत्सव मनाते हैं। अंतर इतना ही पड़ा है कि दीपमालिका संध्या के समय की जाने लगी है। किन्तु दक्षिण जिसमें जैनधर्म का किसी समय अत्यधिक प्रसार था, अब भी प्रातः काल ही दीपावली मनाता है और सुबह के समय ही आतिशबाजी करता है जबकि पावापुरी में मनुष्यों और देवों ने दीपोत्सव, किया था। यदि निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो केरल के दीपम् उत्सव का औचित्य समझ में आ सकता है। संस्कार इतनी जल्दी नष्ट नहीं होते।
केरल में जो प्राचीन जैन मंदिर ब्राह्मणों के अधिकार में चले गए हैं, उनके बाहर की दीवालों पर एक के ऊपर एक अनेक पंक्तियों में जो सैंकड़ों दीप-आधार बने हुए हैं उनसे ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि जैन कितनी धूमधाम से भगवान महावीर का निर्वाणोत्सव अथवा दीपावली मनाते रहे होंगे। सर्पक्कलम्
पार्श्वनाथ और पद्मावती की लोकप्रियता के कारण केरल में नागपूजा का प्रचलन अधिक लक्षित होता है। इस तथ्य का एक और प्रमाण केरल में रंगीन चूर्णों से जमीन पर की जानेवाली चित्रकारी है जिसे कलम कहा जाता है। इसका रिवाज भी नायर लोगों तथा निम्न जातियों में ही अधिक है। कोई बिरला ही नंपूतिरि परिवार कलमकारी करता हो। इस चित्रकारी में सर्पक्कलम् प्रमुख है। इसमें तीन, पांच या सात फणवाले सर्प बनाए जाते हैं किन्तु ये साधारण सर्प नहीं होते अपितु देवरूप होते हैं। इसके संबंध में Studies in folklore of Kerala में डॉ. चुम्मर चूंडल ने पृ.-9 पर यह मत व्यक्त किया है कि केरल की इस कलमकारी पर मैसूर क्षेत्र का सीधा प्रभाव है। उक्त प्रदेश में जैनधर्म के प्रभाव के विषय में संभवत: अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। लेखक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org