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केरली संस्कृति में जैन योगदान
उपदेश देते हैं। राजस्थान में जैन साधुओं द्वारा लावणी नामक संगीत रचना का बड़ा प्रचार है। स्वयं पार्श्वदेव ने लिखा है कि गमकों से मन की एकाग्रता होती है। तन्मयता भी तो इस एकाग्रता को संभव बनाती है। आचार्य स्वयं भी मीठी तान और लय के धनी रहे होंगे। चित्रकारी
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जैन मंदिरों में प्राचीन काल से ही तीर्थंकर के जीवन, बाहुबली मुनियों पर जुल्म ( हस्तिनापुर में ) नेमिनाथ की बारात और उनका वैराग्य, पार्श्वनाथ को कमठ द्वारा ध्यान से विचलित करने के लिए कष्ट दिया जाना, लोभ, परिणाम, तीर्थंकर माता के स्वप्न, अहिंसामयी वातावरण में सिंह और गाय का एक साथ पानी पीना, गजलक्ष्मी, तीर्थंकर की उपदेश सभा समवसरण, प्राकृतिक दृश्य, तीर्थस्थानों के चित्र, धर्मचक्र, कमल, कलश आदि मांगलिक पदार्थों का चित्रण मंदिर की दीवालों आदि पर किया जाता रहा है। दक्षिण भारत के जैन मंदिरों में तो इसका प्रचलन था । केरल में साष्टांग प्रणाम करती हुई भक्त महिला का भी प्रस्तर अंकन कोविलों में देखा जा सकता है। नाग कोविल के मंदिर में, शुचींद्रम के कोविल में एवं कुछ अन्य मंदिरों में इस प्रकार के अंकन हैं।
संगम कालीन साहित्य में भी इस प्रकार की चित्रकारी के संकेत मिलते हैं। केरल गजेटियर (P. 121 ) का कथन है, Sangam classics refer to the figures of Gods and scenes of nature painted on walls and canvas. We are led to believe that the Jains were the first to initiate the practice of painting on the walls. "
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कार्तिक दीपम् उत्सव
केरल में कार्तिक मास में शानदार तरीके से दीपोत्सव मानाया जाता है। यह उत्सव भी प्राचीन काल से, कम से कम संगम काल से चला आ रहा है। गजेटियर ने उसे चोल देश के किसानों के इसी प्रकार से जोड़ने का प्रयत्न किया है। दूसरे उसने यह अनुमान किया है कि प्राचीन काल के चेर शासकों के समय में यह उत्सव भगवान मुरुग के सम्मान में मनाया जाता रहा होगा किन्तु उसके संपादक ने यह स्वीकार किया है कि उन्हें चेर शासकों के समय के काव्य में ऐसा कोई संदर्भ नहीं मिला। स्पष्ट है कि ये कथन अटकल पर आधारित हैं। केरल में जैनधर्म का प्रचार था इससे संभवतः इन्कार नहीं किया जा सकता। इस दीपोत्सव का संबंध भी जैन परंपरा से संबंधित किया जा सकता है। ईसा से 527 वर्ष पूर्व भगवान महावीर का निर्वाण आधुनिक पटना के समीप स्थित पावापुरी में कार्तिक मास की चतुर्दशी के अंतिम प्रहर में स्वाति नक्षत्र में हुआ था। उस समय सर्वत्र शोक छा गया। उस निर्वाण रात्रि का विशद वर्णन दो हजार वर्ष प्राचीन प्राकृत ग्रंथ कल्पसूत्र में उपलब्ध है। उसमें लिखा है- जं रयणि च णं भगवं महावीरे कालगये जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं नव मल्लइ नव लिच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो अमावसाए पाराभेोयं पोसहोववासं पट्ठवइंसु, गते से भावुज्जोए द्व्वज्जोवं कस्स्सिामो ।।127।। अर्थात् जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके संपूर्ण दुख पूर्ण रूप से नष्ट हो गए, उस रात्रि में कासी कोसल के नौ मल्ल राजा और नौ
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