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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
था और किया जाता है। केरल में मंदिरों की संख्या बहुत अधिक बताई जाती है। इसका कारण यज्ञ तो संभवत: नहीं हो सकता। वास्तव में, संस्कृत में कुछ मंत्र आदि बोल कर स्वाहा स्वाहा में साधारण लोगों को अधिक आनंद की अनुभूति नहीं होते देखकर संभवतः वैदिकों में भी मंदिर निर्माण की प्रवृत्ति जगी ऐसा कुछ इतिहासकरों का मत है। यदि इलंगो अड़िकल की अमर रचना शिलप्पाधिकारम् ध्यान से पढ़ें तो ज्ञात होगा कि ब्राह्मण यज्ञादि में ही अधिक विश्वास करते थे। Sri M.S. Ramaswami Ayyangar, author of Studies in South Indian Jainism, opines that "Idol worship and temple building on a grand scale in South India have also to be attributed to Jain influence. The essence of Brahminism was not idol worship. How came it then that the Dravidians built large temples in honour of their Gods? The answer is simple. The Jains erected statutes to their Tirthankaras and other spiritual leaders and worshipped them in large temples. As this method of worship was highly impressive and attractive, it was imitated." (p.77) अपने मत के समर्थन में उन्होंने उन अनेक देव कुलिकाओं (niches) का उदाहरण दिया है जो कि शैव संतों के सम्मान में बहुत अधिक बनाए गए हैं तथा मंदिरों में उन्हें प्रतिष्ठित किया गया है। संगीत समयसार
केरल में संगीत के क्षेत्र में संगीतशास्त्र नामक ग्रंथ की प्रसिद्धि है। उसका प्रकाशन त्रिवेद्रम् की संस्कृत सीरीज के अन्तर्गत किया गया है। उसके रचनाकार पार्श्वदेव नाम के जैन आचार्य हैं। इन्होंने मंगलाचरण की प्रथम पंक्ति में ही समवसरण (तीर्थंकर की उपदेश सभा) का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने आपको सम्यक्त्वचूड़ामणि कहा है। सम्यक्त्व एक जैन पारिभाषिक शब्द है। इसका नामकरण की आचार्य ने संभवतः कुंदकुंदाचार्य की बहुत आदृत एवं प्रसिद्ध कृति समयसार के अनुकरण पर किया है ऐसा प्रतीत होता है। पार्श्वदेव ने अपना परिचय "दिगंबरसूरि" के रूप में दिया है। इसमें उन्होंने संगीत प्रतियोगिता के नियम, निर्णायक की योग्यता आदि का भी उल्लेख किया है। लोक व्यवहार सिद्ध राग के अंतर्गत आचार्य ने कर्णाट गौड़, द्राविड़ गुर्जरी, दक्षिण गुर्जरी आदि का विवेचन किया है। यह संगीत समयसार कुंदकुंद भारती दिल्ली द्वारा हिन्दी अनुवाद आदि सहित आचार्य बृहस्पति के संपादन में प्रकाशित हो चुका है। प्रश्न किया जा सकता है कि कर्नाटक के इस दिगंबर जैन साधु को राग, आलाप आदि संगीत की विधाओं से क्या लेना-देना? इसके उत्तर के लिए केरल-कर्नाटक की तत्कालीन परिस्थिति पर विचार करना चाहिए। उन दिनों शैव-वैष्णव भक्ति आंदोलन जोरों पर था। आचार्य की यह भावना रही होगी कि जैनों को भी संगीतमय भक्ति में पीछे नहीं रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी स्मरणीय है कि जैन धर्म के तीर्थंकर के सम्मुख नृत्य और गायन की बहुत प्राचीन परंपरा है। मान्यता है कि तीर्थकर के जन्म आदि के समय इन्द्र नृत्य करता है। जैन धार्मिक उत्सवों के समय आज भी इन्द्र जैसी वेश-भूषा बनाकर संगीत के साथ नृत्य-गायन का आयोजन होता है। मधुर कंठ का वरदान प्राप्त जैन साधु भी संगीतमय
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