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केरली संस्कृति में जैन योगदान
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घूम-घम कर वनवासी महात्माओं के संसर्ग से वनस्पतियों, जड़ियों और रसायनों द्वारा रस बनाना सीख लिया।" उनकी जीवनी में आगे कहा गया है कि नागार्जुन ने अपने गुरु पादलिप्त सरि को स्वर्ण बनाने, पैरों में लेप लगाकर गगन में विहार आदि द्वारा प्रभावित करने का भी उपक्रम किया था। इस पर सूरिजी ने नागार्जुन को समझाया कि वे सांसारिक विभूतियों के प्रलोभन से दूर रहकर अपनी आत्मा को कल्याण के मार्ग में लगावें। नागार्जुन ने वैसा ही किया। उनका समय गुप्तवंशी चंद्रगुप्त प्रथम और समुद्रगुप्त का समय बताया है अर्थात् चौथी सदी ईसवी का पूर्वार्द्ध। आचार्य नागार्जुन ने दक्षिणापथ के श्रमण या जैन साधुओं को भी एकत्रित किया था। क्या यह संभव नहीं कि रसवैशेषिक सूत्रम् इन ही की कृति हो। यह भी स्मरणीय है कि उक्त सदी में तमिलगम में जैन धर्म का अत्यधिक प्रभाव था। इस प्रश्न पर शोध की आवश्यकता है विशेष कर केरल के कवि कुजिकुट्टन तंपूरान के इस कथन के प्रकाश में कि केरल के ब्राह्मणों ने वैद्यक का ज्ञान जैनों से भी प्राप्त किया था।
प्रस्तुत लेखक ने उपर्यक्त दो ग्रंथों का ही सरसरी तौर पर अध्ययन किया था। अन्य ग्रंथों पर भी जैन प्रकाश की संभावना संबंधी खोज होनी चाहिए। ज्योतिष और जैन
कुंजिकुट्टन तंपूरान का यह मत भी समीचीन है कि केरल के ब्राह्मणों ने ज्योतिष का ज्ञान जैनों से भी प्राप्त किया था। केरल के ज्योतिष इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय ज्योतिष के इतिहास में भी जैनों का बहुमूल्य योगदान है। स्व. डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने भारतीय ज्योतिष का एक विस्तृत ग्रंथ लिखा है जिसके चौदह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने "केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि" नामक प्रश्न ज्योतिष के एक प्राचीन ग्रंथ की भूमिका में केरल में लोकप्रिय प्रश्न ज्योतिष आदि के सम्बन्ध में जो तथ्य दिए हैं, उनका संक्षिप्त उल्लेख यहां किया जाएगा। वे लिखते हैं, "डॉ. श्याम शास्त्री ने वेदांग ज्योतिष की भूमिका में बताया है 'वेदांग ज्योतिष के विकास में जैन ज्योतिष का बड़ा भारी सहयोग है, बिना जैन ज्योतिष के अध्ययन के वेदांग ज्योतिष का अध्ययन अधूरा ही कहा जाएगा। भारतीय प्राचीन ज्योतिष में जैनाचार्यों के सिद्धांत अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।' विशेषकर दक्षिण भारत के सम्बन्ध में उनकी सूचना है कि आर्यभट्ट ने भी जैन युग की उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी संबंधी कालगणना को स्वीकार किया है। पांड्य राष्ट्र में आचार्य सर्वनंदी ने गणित ज्योतिष ग्रंथ लिखा था। कन्नड़ में लीलावती नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है। डॉ. नेमिचंद्र का कथन है कि "जैनाचार्यों ने ज्योतिष-गणित संबंधी ग्रंथों की रचना संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, तमिल एवं मलयालम आदि भाषाओं में भी की है।"
उपर्युक्त चूड़ामणि की प्रस्तावना में प्रश्न ज्योतिष का विकास क्रम बताते हुए डॉ. नेमिचंद्र ने इस विषय का प्रथम जैन ग्रंथ अर्हच्चूडामणिसार को बताया है और उसे आचार्य भद्रबाहु की कृति माना है। वे लिखते हैं कि, "अर्हच्चूड़ामणिसार के पश्चात् प्रश्न ग्रंथों की परंपरा बहुत जोरों से चली। दक्षिण भारत में प्रश्न निरूपण करने की प्रणाली अक्षरों पर ही आधारित थी। 5वीं, 6ठी शती में चंद्रोन्मीलन नामक प्रश्न ग्रंथ बनाया गया है जैनों की 5वीं, 6ठी शताब्दी की यह प्रणाली बहुत प्रसिद्ध थी, इसलिए इस प्रणाली को ही लोग
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