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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
लेख "जैन संतों की आयुर्वेद को देन" में आशाधर के सम्बन्ध में यह लिखा है, "इन्होंने वाणभट्ट के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांगहृदय पर उद्योतिनी या अष्टसंगहृदयद्योतिनी टीका लिखी थी। आशाधर की ग्रंथ प्रशस्ति में इसका उल्लेख है
आयुर्वेदविदामिष्टं व्यक्तु वागभटसंहिता।
अष्टांगहृदयोद्योतं निबंधमसृजच्चयः।। स्वयं आशाधर ने सागार धर्मामृत के पृ.-141 पर पुत्रोत्पादन धर्म संतति के लिए किया जाए यह लिखते हुए अष्टांगहृदय का एक श्लोक उद्धृत किया है जो निम्न प्रकार है
पूर्ण षोडशवर्षा स्त्री पूर्ण विंशेन संगता। शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्ते शुऽनिले हृदि।। वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनाब्दयोः पुनः।
रोगयाल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा।। पूर्ण सोलह वर्ष की स्त्री का पूर्ण बीस वर्ष के युवा से संयोग होने पर वीर्यवान उत्पन्न होता है। इससे कम उम्र में यदि संतान उत्पन्न होती है तो वह रोगी और अल्पायु होती है।
पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि यदि अष्टांगहृदय अजैन कृति होती तो जैनधर्म की आचार संहिता का महान संकलनकर्ता आशाधर संभवत: इस ग्रंथ पर इतना जोर नहीं देता। उपर्युक्त उल्लेखों को देखते हुए विद्वानों को इस ग्रंथ के जैन ग्रंथ होने की संभावना पर भी विचार करना चाहिए। रसवैशेषिकसूत्रम और नागार्जुन
केरल के आयुर्वेदिक कालेज में रसवैशेषिकसूत्रम् नाम का एक ग्रंथ पढ़ाया जाता है और उसका कर्ता दूसरी सदी के बौद्ध आचार्य नागार्जुन हैं ऐसा माना जाता है। किन्तु इसी ग्रंथ की श्री शंकर लिखित भूमिका में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह रचना सातवीं सदी के किसी बौद्ध मलयाली लेखक की है जिसका नाम भी नागार्जुन था। इसी भूमिका में भी बौद्ध और जैन धर्म संबंधी भ्रांति परिलक्षित होती है। भूमिका लेखक ने केरल में बौद्ध अंशदान का उदाहरण देते हुए लिखा है कि चितराल नाम के गांव के पास बौद्ध अवशेष देखे जा सकते है। वहां बौद्ध नहीं अपितु जैन अवशेष हैं। इस गांव के पास की जिस पहाड़ी पर ये अवशेष हैं वह तिरुच्चारणट्टमलै कहलाती है अर्थात् चारणों की पवित्र पहाड़ी जो कि किसी समय जैनों के लिए पावापुरी के समान पवित्र स्थान थी। अब वहां का गुफा मंदिर भगवती मंदिर कहलाता है किन्तु उसमें महावीर, पार्श्वनाथ और अंबिकादेवी की प्रतिमाएं आज भी देखी जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त वहां की चट्टान पर लगभग तीन जैन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। ऐसा सम्भवतः जिन मूर्तियों संबंधी ज्ञान के अभाव के कारण होता है। वहां के पुजारी भी उन प्रतिमाओं को बुद्ध की मूर्ति बतलाते हैं।
आचार्य हस्तीमलजी ने बृहताकार ग्रंथ 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' में नागार्जुन नामक एक जैन आचार्य का परिचय दिया है जिसकी कुछ प्रमुख बातें इस प्रकार हैं- आचार्य नागार्जुन, "प्रारंभ से ही प्रबल साहसी होने के कारण पर्वतों की गुफाओं एवं जंगलों में
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