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केरली संस्कृति में जैन योगदान
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the ceremonial invocation of Jina or Buddha Namostu Jina was later on replaced by the Brahmin gurus as Hari Sri Ganapathaye Namah. पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि जैन शब्द ही जिन से बना है तथा जो जैनों के परस्पर अभिवादन से परिचित हैं उन्हें यह ज्ञात होगा कि जैन एक दूसरे से मिलने पर जयजिनेन्द्र का ही प्रयोग करते हैं। बुद्ध के लिए जिन शब्द अधिक नहीं चला। केरल में तो उनका धर्म कभी-कभी लुप्तप्राय हो चुका था।
शिक्षा के क्षेत्र में जैनों का योगदान केरल में आज भी स्कूल के पूर्व में प्रचलित शब्द पळळिक्कूटम् से भी सूचित है। मंदिरों, मठों के साथ विद्यालय हुआ करते थे और भारत के अनेक स्थानों पर आज भी होते हैं। इलंगो अड़िगल इसी प्रकार के मठ या मंदिर में निवास करते थे। इरिंगालकुडा का भरत मंदिर, जो कि किसी समय जैन था, विद्या का एक प्रसिद्ध केन्द्र था। वैदिक स्कल शालै कहलाते थे। आयुर्वेद और जैन
केरल में आयुर्वेद का बहुत प्रचार है जो कि बलवती प्राचीन परम्परा का परिणाम है। इस शास्त्र के अध्ययन में अष्टांगहृदय नामक ग्रंथ का महत्वपूर्ण स्थान है। उसके रचयिता वाग्भट्ट बौद्ध थे ऐसा विश्वास किया जाता है। (देखिए गजेटियर का पृ.-2401 किन्तु इस मत की समीक्षा आवश्यक है।)
जैन धर्म में तीर्थकर की वाणी को बारह अंगों में संकलित किया गया है। उसके बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद है। उसके एक भेद पूर्व के अंतर्गत अर्धमागधी में निबद्ध प्राणावाय में अष्टांगहृदय आयुर्वेद का विस्तार से वर्णन है। आचार्य देशभूषण अभिनिंदन ग्रंथ में एक लेख "आयुर्वेद के विषय में जैन दृष्टिकोण और जैनाचार्यों का योगदान" में आयुर्वेदाचार्य राजकुमार जैन ने प्राणावाय की परिभाषा निम्न प्रकार उद्धत की है "काय चिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेद भूतकर्मजांगुलिप्रमः प्राणापानविभागोपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्त्प्राणावायम्" अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद आदि, पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के कर्म, विषैले जीव-जंतुओं के विष का प्रभाव और उसकी चिकित्सा तथा प्राण-अपान वायु का विभाग विस्तारपूर्वक वर्णित हो, वह प्राणावाय होता है। इस अत्यंत प्राचीन परिभाषा में अष्टांग आयुर्वेद का उल्लेख स्पष्ट रूप से है। अतः इस नाम के ग्रंथ के जैन होने की संभावना बनती है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा बिना मांस और अशुचि पदार्थों के सेवन के भी की जा सकती है यह सिद्ध करने के लिए जैन आचार्य उग्रादित्य ने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना की थी। उसका भी दक्षिण भारत में आदर है। इस ग्रंथ में अष्टांगहृदय को "समंतभद्रै प्रोक्तं" अर्थात् समंतभद्र द्वारा कथन किया गया कहा गया है। उससे भी अष्टांगहृदय जैन ग्रंथ है ऐसा सूचित होता है। यह भी शोध का विषय है।
___पंद्रहवीं सदी में आशाधर नाम के एक जैन विद्वान हुए हैं जिन्होंने जैन गृहस्थों और जैन मुनियों के आचार के विषय में सागार धर्मामृत और अनगार धर्मामृत नाम के बहुत आदृत ग्रंथों की रचना की है। ऊपर दिए गए अभिनंदन ग्रंथ में डॉ. तेजसिंह गौड़ ने अपने
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