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________________ 384 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ अतिप्राचीन काल से चली आ रही परम्परा पर आधारित है।" तंपूरान का समय उन्नीसवीं सदी का अंत और बीसवीं सदी का प्रारम्भ है। इसलिए उनके मत के साथ बौद्धधर्म की संगति नहीं बैठती है। इन उल्लिखित विषयों की चर्चा आगे की जाएगी। दाम्पत्य सम्बन्ध पति-पत्नी संबंध का आदर्श भी जैन संस्कृति की एक महत्वपूर्ण देन केरल को है। इस संबंध में उपर्युक्त केरलचरित्रम् के पृ.-1098 पर यह मत व्यक्त किया गया है, "दाम्पत्य संबंध में एक पत्नी और एक पतित्व का प्रारम्भ कब से हुआ, इसके संबंध में कोई निश्चित मत निर्धारित करना कठिन है। केरल में जैनधर्म के प्रभाव ने इस दिशा में अपना अंशदान किया होगा। शिलप्पादिकारम् में वर्णित दाम्पत्य लक्षण में ऐहिक सुखों से विरक्ति का जैन दर्शन परिलक्षित होता है जिसमें दाम्पत्य रति दैहिक न होकर आध्यात्मिक स्तर पर वर्णित है। इस काव्य में स्पष्ट संकेत मिलता है कि स्त्री-पुरुष संयोग में लैंगिकता की अपेक्षा आत्मिक एवं दैवी छाया का होना अधिक वांछनीय है"। यहां इतना ही उल्लेख किया जाता है कि शिलप्पादिकारम् में जैन श्राविका कण्णगी और उसके पति कोवलन की करुण कहानी है जो कि आज भी केरल के जनमानस पर छाई हुई है। यह महाकाव्य चेरवंश के युवराज इलंगो अडिगल की अमर कृति है। केरल को उसपर गर्व है। उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इलंगो जैन साधु हो गए थे। उनका समय ईस्वी की दूसरी सदी है। (अधिक विवरण एवं तथ्यों के लिए देखिए कोडंगल्लूर।) पुनर्जन्म का सिद्धान्त अपने शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार प्रत्येक प्राणी को तब तक जन्म और मरण का दुःख सहन करना पड़ता है जब तक कि वह स्वयं तप कर मोक्ष प्राप्त न कर ले। इस दुःख से उसे कोई ईश्वर नहीं बचा सकता, उसे स्वयं ही आत्म कल्याण की राह पर चलना होता है। केरल में पुनर्जन्म के सिद्धांत में व्यापक विश्वास भी जैन सिद्धांतों के व्यापक प्रचार का परिणाम जान पड़ता है। केरलचरित्रम् के शब्दों में "ईस्वी आठवीं-नवीं शताब्दी में प्रचलित जैन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार जो जीव इहलोक के सुखों से अतृप्त होकर मर जाता है उसका पुनर्जन्म होता है।" पृ.-1131 शिक्षा का प्रारंभ नमोस्तु जिन से केरल में बच्चों की शिक्षा का प्रारंभ नाना मोना से शरू होता था जिसका अर्थ नमोस्त है। किन्त इस संबंध में यह याद रखने योग्य है कि इस शब्द का वास्तविक संबंध जैन परम्परा से है। बौद्ध तो शरणम् तक सीमित रहते थे। खेद की बात है कि बौद्ध धर्म के मानने वाले अमरसिंह ने अमरकोष में जिन शब्द का केवल बुद्धधर्म संगत पर्याय देकर जैनधर्म के साथ न्याय नहीं किया। जिन शब्द बुद्ध से भी प्राचीन काल से जैन देवता या तीर्थकर के अर्थ में प्रयुक्त होता आ रहा है। (इस संबंध में स्वयं गौतम बुद्ध का कथन "जिननिकेतन श्रीमूलवासम्" नामक प्रकरण में देखिए।) केरल गजेटियर ने भी अमरकोष का पर्याय दोहरा दिया ऐसा लगता है। उसके पृ.-241 पर यह उल्लेख है, “It was the practice in Kerala to initiate first lessons in reading and writing with Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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