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________________ केरली संस्कृति में जैन योगदान 383 used Sanskrit in southern as in northern India at the commencement of their works as teachers (probably for a century or two before they set themselves to the task of developing amongst each of the Dravidian races a popular literature independent of their rivals the Brahmins.)Some of the oldest Tamil works extant were written or claimed to have been written by the Jains. The Naladiyar and the Kural are said to belong to the Jain cycle in the history of Tamil literature. Some scholars arrived at this conclusion from the internal evidence of the works themselves. Caldwell is of the view that "Tamil is indebted for its high culture and its comparative independence of Sanskrit chiefly to the Jains" जैन मुनियों, धर्म प्रचारकों आदि द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं के विकास और प्रयोग का प्रमुख कारण यह है कि उन्होंने प्राकृत को देववाणी आदि नहीं कहा बल्कि इसके विपरीत उन्होंने संबंधित क्षेत्र की भाषा को अपनाया और उसी में अपना उपदेश आदि देने के साथ ही साथ उसमें बहुमूल्य साहित्य का सृजन भी किया। कन्नड, तमिल के प्राचीन कोश, व्याकरण, काव्य, महाकाव्य आदि इसके प्रमाण हैं। तमिल का उपदेशात्मक या नीतिपरक विपुल साहित्य जैनों की विशेष देन है। वह भी केरल की विरासत है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस साहित्यिक निधि को अन्य किसी धर्म की देन बतलाने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। न तो पिछली सदियों में और न ही आजकल जैन मुनियों ने प्राकृत में अपना या महावीर का संदेश सुनने का कभी आग्रह किया। जैन मुनि के लिए यह विधान भी है कि वे अन्य भाषाएं सीखें और लोक भाषा में अपना उपदेश दें। वास्तव में, जैन संघ सदा ही लोक भाषाओं का प्रबल दावेदार रहा है। मलयालम भाषा में 'केरलचरित्रम् (केरल का इतिहास), दो बृहदाकार खंडों में केरल हिस्ट्री असोसिएशन' द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसमें (पृ.-1023-24) पर भी जैनों के योगदान की चर्चा है। किन्तु जैनधर्म के साथ बौद्धधर्म का भी नाम जोड़ा गया है। यह विचारणीय है कि बौद्धधर्म तो केरल में सातवीं और नौवीं सदी के बीच ही लुप्त हो गया था। जो भी हो, इस इतिहास के कुछ अंश इस प्रकार हैं- "जैन-बौद्धधर्मों के प्राबल्य के साथ केरल में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को पुष्टि मिली। जैन बौद्ध संन्यासियों ने नाना प्रकार के धर्म ग्रंथों का केरल में प्रचार किया। कुंजि कुट्टन तंपूरान अपने केरलम् काव्य के द्वितीय सर्ग में लिखते हैं, "बौद्ध जैनियों ने अपने योग बल से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी और अपने वैद्यक ज्योतिष आदि शास्त्रों से संबंधित पुस्तकों की रचना की थी। केरल के ब्राह्मणों ने इनका परिचय जैन बौद्ध ग्रंथों से प्राप्त किया था।" "कुंजिकुट्टन तंपूरान का यह मत गौर करने योग्य है कि मलयाली ब्राह्मणों ने ज्योतिष, अमरकोष, ज्योतिर्गणित, आयुर्वेद आदि विद्याओं का ज्ञान जैनियों और बौद्धों से पाया था। इसलिए उनके प्रति केरलीय ब्राह्मणों ने विरोध का प्रदर्शन नहीं किया किन्तु अनुनय-अनुरंजन के द्वारा उन्हें अपने वश में करने का प्रयत्न किया था। तंपूरान का कहना है कि तच्चों (तच्च बढ़ई) द्वारा प्रचार किया गया तच्चशास्त्र (बढ़ईगिरि का ग्रंथ), कणियान जाति द्वारा प्रचारित ज्योतिष, वेलन जाति द्वारा प्रचारित वैद्यशास्त्र केरल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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