________________
खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख एवं जैनधर्म
में उसकी सीमा कदाचित वेणगंगा तथा दक्षिण में वह गोदावरी तक थी। पूर्व में समुद्र उसकी प्राकृतिक सीमा थी। खारवेल की राजधानी के सम्बन्ध में कुछ लोगों का अनुमान है कि उसका नाम खिबिर था; कुछ लोग उसका नाम कलिंग नगरी बताते हैं। यह नगरी कहाँ थी कहना कठिन है; पर उसे प्राची नदी के तट पर ही कहीं होना चाहिए जहाँ उसने महाविजय प्रासाद बनवाया था ।
खारवेल के शासन काल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों की सम्मति में खारवेल का समय द्वितीय शताब्दी ई. पूर्व का प्रथममार्द्ध है। किन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं है।
हाथीगुम्फा अभिलेख के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कलिंग का राजा खारवेल एक महान विजेता तथा अपने समय का एक प्रभावशाली सम्राट था। जिस कलिंग पर मगधेश्वरों (नन्दो और मौयों) ने अपनी राजसत्ता स्थापित की थी, उसी देश के शासक ने अपने भुजबल से अपने समय के मगध सम्राट को नतमस्तक होने के लिए बाध्य किया । एक बार नहीं, अपितु दो-दो बार उत्तरापथ पर आक्रमण करके खारवेल ने अपनी शूरता का परिचय दिया। शातकर्णी के बल की अवहेलना करके उसने मूषिक नगर का विध्वंस किया, पिथुण्ड नगर को उसने विनष्ट किया और दक्षिण (तामिल देश) के पाण्ड्य राजा से अपने विजय- स्वरूप प्रचुर धन प्राप्त किया। शौर्य से भयभीत होकर एक यवन नरेश ने भागकर मथुरा में शरण ली। इन सब प्रमाणों के आधार पर यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि खारवेल अपने समय का सबसे प्रचंड योद्धा और विजेता था। उसकी वैजयंती सर्वदा फहराती ही रही। विश्व के अन्य महान शासकों की भांति महाराज खारवेल में अन्य गुण भी विद्यमान थे। उसने लोकहित के जो कार्य किये, उनके द्वारा उनकी प्रजावत्सलता सिद्ध होती है। वह एक महान दानी तथा जैन धर्म का परिपोषक भी था। हाँ, यह अवश्य है कि उसने अपने महान् सैन्यबल के बावजूद भी एक सुसंगठित सम्राज्य का निर्माण नहीं किया। एक महान विजेता होने पर भी वह एक महान साम्राज्य निर्माता नहीं था। उसकी शासन निपुणता का विवरण उसके अभिलेख द्वारा हमें नहीं प्राप्त होता, अतएव हम यह नहीं कह सकते कि वह एक सुयोग्य शासक भी था। भारत के राजनीतिक नभोमण्डल पर कलिंगाधिपति का उदय एक ऐसे नक्षत्र के रूप में हुआ जो उज्ज्वल तो था किन्तु जिसकी आभा केवल अल्पकाल के ही लिए चमकती रही। उसकी विजयों का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा।
संदर्भ :
1. ओरिजिन ऑफ इन्डियन ब्राह्मी अल्फावेट, इन्डियन स्टडीज, नं. III, पृ. 13.
2. जर्नल ऑफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1910, पृ. 242 एवं आगे ।
3. इपिग्राफिका इण्डिका, X, पृ. 160-61, (सं. 1345 ) ।
4. नमो अरहंतानं नमो सविसिधानं ... ।
5. बलभद्र जैन, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, पृ. 187.
Jain Education International
381
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org