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________________ खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख एवं जैनधर्म 16वीं पंक्ति के पढ़ने के सम्बन्ध में अपना विचार दिया था । ल्यूडर' ने भी इसका सार प्रस्तुत किया था। 1913 ई. में आर.डी. बनर्जी ने इसके कुछ अंश पर विचार किया था। 1917 में इस अभिलेख दो स्टैम्पेज लिया गया था। के. पी. जायसवाल को इस दुष्पाठ्य किन्तु महत्वपूर्ण अभिलेख को पढ़ने में दस साल लगे थे। बिहार रिसर्च सोसाइटी के जर्नल के अंक 3 भाग 4 में हाथीगुम्फा अभिलेख पर इनका पहला लेख प्रकाशित हुआ। उसके बाद भी कई लेख प्रकाशित हुए हैं। 1919 में के. पी. जायसवाल तथा आर. डी. बनर्जी ने संयुक्त रूप से इस अभिलेख का निरीक्षण किया। इसका स्टैम्पेज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एम. पाण्डेय द्वारा तैयार किया गया। इस आधार पर बिहार रिसर्च सोसाइटी के जर्नल के अंक XIII 1927 में प्रकाशित किया गया। पाठ की दृष्टि से जायवाल और बनर्जी का संयुक्त प्रयास तथा बरूआ का अध्ययन विशेष विचारणी समझा जाता रहा है। स्टेन कोनो, थामस, मुनि जिन विजय, राम प्रसाद चन्दा आदि विद्वानों ने भी इस लेख के पढ़ने का प्रयास किया है। दिनेश चन्द्र सरकार ने इन पाठों के पश्चात् अपना पाठ उपस्थित किया है जो अभी तक लोगों में मान्य है। किन्तु अभी हाल में इसका एक नया पाठ शशिकान्त ने प्रस्तुत किया हैं। Jain Education International 377 अभिलेख का आरम्भ अर्हतों के नमस्कार से हुआ है । इसलिए यह प्रायः निश्चित समझा जाता है कि खारवेल जैन धर्मानुयायी थे। इसका समर्थन उनके विरुद पूजानुरत- उवासग तथा कलिंग जिन के सन्निवेश भी पूजा (पंक्ति 12 ) से भी होता है। जैनधर्म के इतिहास को जानने की दृष्टि से इस अभिलेख का अत्यधिक महत्व है। या यों कहा जाय कि देश में पाई जाने वाली शिलालेखों में जैनधर्म के लिये यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसा विश्वास है कि अंग, बंग तथा मगध की भांति कलिंग में भी अत्यंत प्राचीन काल से जैनधर्म का प्रभाव रहा है। वहाँ का लोक-जीवन जैनधर्म के आधार और विचारों से अनुप्रमाणित रहा है। नगेन्द्रनाथ बसु के भी अनुसार "भगवान पार्श्वनाथ ने अंग- बंग और कलिंग में जैनधर्म का प्रचार किया था। धर्म प्रचार के लिये वे ताम्रलिप्त बन्दरगाह से कलिंग गये थे। भगवान महावीर भी कलिंग गये थे। कुमारी पर्वत पर उनका समवसरण लगा था तथा वहां भगवान का उपदेश हुआ था। उत्तराध्ययन सूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर के समय में कलिंग जैनधर्म का केन्द्र था तथा कलिंग पिहुंड़ नामक बन्दरगाह प्रसिद्ध जैनतीर्थ था। हाथीगुम्फा शिलालेख में जिस पिथंड का उल्लेख है संभवतः वह पिथुंड और पिहुंड दोनों एक ही है। किन्तु ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में नन्दवंश के किसी राजा द्वारा कलिंग पर आक्रमण किया गया। इस युद्ध में कलिंग को पराजित होना पड़ा। इस विजय के प्रतीक रूप में नन्दराज 'कलिंग जिन' प्रतिमा को अपने साथ अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गया। सम्भवतः यह प्रतिमा कलिंग में राष्ट्रीय प्रतिमा के रूप में मान्य थी। हाथीगुम्फा अभिलेख से भी इसका समर्थन होता है। नन्दराजा महापद्मनन्द के पौने तीन सौ वर्ष पश्चात् खारवेल ने अपने शासन के 12वें वर्ष में उत्तरापथ के राजाओं को त्रस्त किया था। इस अभियान में वह पाटलिपुत्र आया था और मगध नरेश वृहस्पतिमित ( वहसतिमित) ने उसकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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