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खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख एवं जैनधर्म
डॉ. चितरंजन प्रसाद सिन्हा*
हाथीगुम्फा अभिलेख भारतीय अभिलेखिकी में अपने ढंग का अनोखा है। इसमें कलिंग नरेश खारवेल के कार्यों की चर्चा है। महाराज खारवेल प्राचीन भारत के अत्यंत विख्यात सम्राटों में अपना स्थान रखते हैं। उसके राजकीय सम्बोधन में 'ऐरा', महाराज, महामेघवादन तथा कलिंगाधिपति।
उडीसा में भवनेश्वर के निकट उदयगिरि पर्वतमाला के दक्षिण भाग में एक प्राकृतिक गुफा है जिसे कछ अंशों में काट कर लमण का रूप दिया गया है। यह हाथीगुम्फा के नाम से सुविख्यात है। इस लयण (गुफा) के ऊपरी भाग में प्राकृत भाषा
और ब्राह्मी लिपि में यह लेख उत्कीर्ण है। यह अन्य अभिलेखों में प्राप्त होने वाली राजप्रशस्तियों से सर्वथा भिन्न है। यह अत्युक्तिपूर्ण प्रशस्ति न होकर मात्र वृत्त आलेख है। इसमें अलंकारयुक्त, सीधी-साधी भाषा में खारवेल के कार्यों की घोषणा की गयी है। किन्तु काल-कारण से यह लेख इतना क्षतिग्रस्त है कि इसका पाठोद्धार समुचित रूप से कर सकना किसी के लिए सम्भव नहीं हो सका। पाठोद्धार के लिये विद्वानों को अनुमान या कल्पना का भी सहारा लेना पड़ा है।
इस अभिलेख की ओर सर्वप्रथम र्टेलिङ्ग का ध्यान 1825 ई. में आकृष्ट हुआ। इन्होंने एशियाटिक रिसर्चेज, XV (पृ. 313 एवं आगे) में इसका वर्णन किया है। उसके उपरान्त 1837 ई. में किटो द्वारा अभिलेख से तैयार किये गये कॉपी के आधार पर प्रिंसेप ने इसका प्रकाशन जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, VI (पृ. 1075-91 प्लेट L.VIII) में किया है। कनिंघम ने कारपस इन्सक्रिप्शन इंडिकेरम (प्लेट, XVIII, पृ. 27 एवं आगे, 98-101, 132 एवं आगे) में 1877 में प्रकाशित किया तथा राजेन्द्र लाल मित्रा द्वारा भी एंटीक्वीटीज ऑफ उड़ीसा, 11 (पृ. 16 एवं आगे) में 1880 में प्रकाशित किया गया।
1885 ई. में भगवान लाल इन्द्र जी द्वारा प्रथम बार प्रामाणिक पाठ दिया गया। इन्होंने खारवेल नाम का भी उल्लेख किया है। ब्यूलर ने 1895 एवं 1898 में कुछ सुधार किया था। ब्लॉक द्वारा 1906 ई. में इस अभिलेख का छाया तैयार कर किलहोर्न को भेजा गया था। इसी के आधार पर फ्लीट ने 1910 में अपना पाठ प्रस्तुत किया था। विशेषकर
* पूर्व निदेशक, काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना।
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