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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
आम्नाय का पोषक सूचित करना था। इसके लिए उन्होंने "हिमवन्त-थेरावली" नामक एक ग्रन्थ को अपना आधार बनाया था। इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता के बारे में मुनि जिनविजय जी जो स्वयं एक श्वेताम्बर मुनि थे, ने श्वेताम्बर विद्वान पंडित सुखलाल जी के सहयोग से 1930 में जांच की थी और यह निष्कर्ष दिया था कि "पढ़ने के साथ ही हमें वह सारा ही ग्रन्थ बनावटी मालूम हो गया और किसने और कब यह गढ़ डाला उसका भी सब हाल मालूम हो गया"। उपरोक्त निष्कर्ष दिये जाने के बाद पुरावेत्ताओं और इतिहास के विद्वानों द्वारा इस ग्रन्थ को ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में ग्रहण नहीं किया गया। तदपि कुछ श्वेताम्बर मुनि-विद्वान आम्नाय के पक्ष का साधन करने की दृष्टि से उसका प्रचार करते रहे और इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता की वास्तविकता से अनभिज्ञ कुछ विद्वानों को विभ्रम में डालने में भी सफल हुए। 1970 के दशक में आचार्यश्री हस्तिमल जी द्वारा इस प्रसंग में किया गया योगदान उल्लेखनीय है।
दिगम्बर आम्नाय के साधु समुदाय में आचार्यश्री विद्यानन्द जी ने इस विषय में अभिरुचि प्रदर्शित की और 1990 के दशक में यह विशेष रूप में प्रकाश में आयी। आम्नाय की प्रभावना के व्यामोह में मुनिभक्त विद्वानों ने कतिपय काल्पनिक प्रस्थापनायें की और "राजा खारवेल" को "मुनि खारवेल" भी बना डाला जिसके लिए न तो इस अभिलेख में कोई संकेत है और न ही अन्यत्र कोई उल्लेख है।
हाथीगुम्फा अभिलेख से जो विशिष्ट जानकारी प्राप्त होती है वह संक्षेप में निम्नवत् है:
____ अभिलेख का प्रारम्भ "नमो अरहंतानं नमो सव सिधानं" से होता है, जो कि जैनों णमोकार मंत्र के प्रथम दो पद हैं। अभिलेख का यह प्रारम्भ स्पष्टतः यह सूचित करता है कि इस अभिलेख को लिखाने वाला जैन धर्म का अनुयायी रहा होगा। णमोकार मंत्र का यह प्राचीनतम लिखित पाठ है जो यह भी इंगित करता है कि मूल पाठ यही था।
खारवेल स्वयं को "पूजानुरतउवासग-खारवेल सिरि" कहता है, जिसका तात्पर्य यह है कि वह देवपूजा में अनुरक्त एक श्रावक था।
इस अभिलेख का लेखन खारवेल के 13वें राज्यवर्ष में जैन साधुओं की एक सभा के आयोजन से सम्बंधित है, जो उपस्थित साधुओं द्वारा द्वादशांग के वाचन के लिए आहूत की गई थी, ताकि अवशिष्ट श्रुतज्ञान को, जो भगवान महावीर के निर्वाण के बाद वर्ष 165 से, धीरे-धीरे विच्छिन्न हो रहा था, संरक्षित किया जा सके। इस सभा और वाचना का दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायों की साहित्यिक अनुश्रुतियों में उल्लेख नहीं है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह मतभेदों का समन्वय करने का एक प्रयास था जो संघभेद के पहले किया गया था।
अभिलेख की भाषा 'प्राचीन शौरसेनी या जैन शौरसेनी' प्राकृत नहीं है वरन् यह शिलालेखीय प्राकृत है जो अशोक के अभिलेखों की प्राकृत से व्युत्पन्न है। यह मौर्य कालीन राजभाषा (Official Language) के निरन्तर-क्रम (continuation) में थी।
अभिलेख में वर्ष 103, वर्ष 113 और वर्ष 165 का उल्लेख है। सम्पूर्ण
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