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राजा श्री खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख
डॉ. शशिकान्त*
किसी भी ऐतिहासिक घटना अथवा व्यक्ति के विषय में कोई विवरण तभी इतिहास की कोटि में आता है जब वह किसी पुष्ट प्रमाण पर आधारित हो। यह प्रमाण प्रथमत: वे समकालीन अभिलेख होंगे जो उस घटना या व्यक्ति के विषय में उपलब्ध हों। उन अभिलेखों से जो तथ्य ज्ञात हों उनका समन्वय और सम्बद्धीकरण पश्चात्वर्ती साहित्यिक उल्लेखों तथा अन्य सामग्री से करके एक ऐतिहासिक वृत्त बनाया जा सकता है। अत: सर्वप्रथम यह आवश्यकता होती है कि समकालीन अभिलेखों को खोजा जाय और
विवरण उपलब्ध हो उसको वस्तपरक दृष्टि से देखा व जांचा जाय। इसमें आग्रह यह रहना अपेक्षित है कि यथासंभव शब्दों का सरल अर्थ लिया जाय और उसमें अपनी कल्पनाशीलता से पौराणिक उपमाओं को आरोपित न किया जाय।
प्रायः तीसरी शती ईसवी पूर्व से एक हजार वर्ष पर्यन्त का समय भारत के इतिहास में ऐसा है जिसके बारे में मुख्य साधन-स्रोत देश भर में वन-प्रान्तरों में बिखरे, शिला-खण्डों पर उत्कीर्ण, अभिलेख हैं। इन अभिलेखों की जानकारी विगत 200 वर्षों के भीतर ही हुई। प्रारंभ में अंग्रेज सैलानियों और सैन्य अधिकारियों की जिज्ञासा के फलस्वरूप उनकी जानकारी हुई। 1861 ई. में Archaeological Survey of India की स्थापना के बाद पुरा-सम्पदा की खोज का कार्य भारत की ब्रिटिश सरकार की देख-रेख में विधिवत् व्यवस्थित हुआ। इन अभिलेखों की लिपि को पढ़ने और उनका आशय स्पष्ट करने का कार्य भी 19वीं शती ईस्वी में यूरोपियन जिज्ञासुओं द्वारा प्रथमतः किया गया। हम भारतवासी तो अपनी लिपियों और भाषाओं को भूल ही चुके थे। ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में जो भी साहित्यिक उल्लेख उपलब्ध थे वे एकांगी, अतिरंजित और अस्पष्ट प्रकार के थे। यदि 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में मौर्य सम्राट अशोक के और गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त के अभिलेख पढ़े न गये होते तो आज अशोक और समुद्रगुप्त के बारे में कुछ भी जानकारी न होती! कलिंग के खारवेल का तो पता ही नहीं चलता क्योंकि उसके विषय में जानकारी का एकमात्र साधन-स्रोत 1825 ई. में अंग्रेज सैलानी मि. स्टर्लिंग द्वारा अकस्मात् दृष्टिगत 'हाथीगुम्फा अभिलेख' है।
खारवेल का जैन साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं है, अन्य भारतीय साहित्य में भी
* ज्योति निकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-226004.
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