________________
364
स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
स्म्ल्यूं ह्मल्यूं जम्ल्यूं त्म्ल्यूँ ल्म्ल्यू व्ल्यू प्प्यूं म्ल्यूं भल्यूक्ष्म्ल्यूँ क्म्लव्यूँ हूँ हाँ णमो अरिहंताणं ऊँ ह्रीं णमो सिद्धाणं ऊँ हूँ णमो आइरीयाणं ऊँ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ऊँ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत पराक्रमास्ते भवतु ते भवतु ते भवतु हीं नमः। "प्रतिष्ठा चंद्रिका' में पं. शिवरामजी पाठक ने लिखा है।
ॐ ह्रीं ऐं श्रीं भू ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ माः ऊँ ह्राः ॐ जनः तत्सविहुवरे एयं गर्भो देवाय धी महीधि योनि असिआ उसा णमो अरिहंताणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु। प्रतिष्ठाचार्य श्री सरया जी ने अपने "प्रतिष्ठा दिवाकर" ग्रंथ में लिखा है।
आचार्यकल्प पं. आशाधरजी ने अपने प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रंथ में सूर्य मंत्र का निर्देश तो नहीं किया लेकिन केवलज्ञान होने पर निम्नांकित मंत्र पाठ का निर्देश दिया
"ऊँ केवल णाण दिवायर किरण कला वप्पणासि यण्णाणो। णव केवल लद्धागम सुजणिय परमपरा ववएसो। असहायणाण दंसणसहिओ इदि केवली हु जोएण। जुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइणि हणारिसे उत्तो। इत्येषो हस्साक्षद् त्रावतीर्णो विश्वं पात्विति स्वाहा।"
इसके अलावा हमारे पास 6 प्रकार के संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रंथ हैं उनमें ब्र. सीतलप्रसाद जी और पुष्पजी ने तो आचार्य जयसेन का ही मंत्र संग्रहीत किया। बाकी पं. शिवरामजी पाठक के प्रतिष्ठा चंद्रिका गणधराचार्य श्री कुन्थसागर के संग्रहीत प्रतिष्ठा विधि दर्पण एवं पं. नाथूलालजी शास्त्री के प्रतिष्ठा प्रदीप एवं श्री सोरया जी के "प्रतिष्ठा दिवाकर" संग्रह ग्रंथों में पृथक्-पृथक् सूरिमंत्र दिए हैं। उन्होंने ऐसे किसी भी ग्रंथ का निर्देश नहीं दिया कि यह सरिमंत्र उन्होंने कहाँ से संग्रहीत किया। श्री सोरया ज श्री विमलसागर जी से सुरिमंत्र प्राप्त होने का निर्देश दिया है।
गणधराचार्य श्री कुन्थसागरजी द्वारा संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रंथ "प्रतिष्ठा विधि दर्पण"' में द्वितीय खण्ड पृष्ठ 292 पर लिखा है कि गुरु परम्परा से प्राप्त आचार्यों ने सूरि मंत्र को गोप्य रखा इसलिए शास्त्रों में वर्णन नहीं मिलता। सूरि मंत्र देने के संदर्भ में गणधराचार्य जी के दिगम्बर मुनि महाव्रती द्वारा ही सूरि मंत्र देने की बात लिखी है। 'दिगम्बर होकर प्रतिष्ठाचार्य को सूरिमंत्र नहीं देना' ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया मैं नहीं कह सकता यह निर्देश उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। पंच कल्याणकों के समस्त संस्कार प्रतिष्ठाचार्य करें और फिर जहाँ मुनि सम्भव न हो वहाँ फिर प्रतिष्ठाचार्य सूरि मंत्र दे या न दे इसका समाधान नहीं दिया, दिगम्बर होकर प्रतिमा संस्कार करना अलग बात है कि दिगम्बर होकर महाव्रत धारण करना अलग बात है।
प्रतिष्ठा प्रदीप संग्रहीत प्रतिष्ठा ग्रंथ में पं. नाथूलालजी शास्त्री ने ग्रंथ में द्वितीय भाग पृष्ठ 185 पर सूरिमंत्र का 108 बार जाप प्रतिष्ठाचार्य करे। पश्चात् उसी मंत्र को मनि से प्रतिमा में दिलाने का निर्देश दिया है।
प्रतिष्ठा चंद्रिका संग्रहीत ग्रंथ के पृष्ठ 236 पर पं. श्री शिवरामजी पाठक लिखते हैं कि मुनि ब्रह्मचारी के अभाव में स्वयं नग्न होकर प्रतिष्ठाचार्य 108 बार जाप करके समस्त प्रतिमाओं को मंत्रित करे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org