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सूरिमंत्र और उसकी महत्ता
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2. शुद्धि प्रोक्षण विधि- सर्वोषधियों तथा सुगंधित द्रव्यों से युक्त जल से प्रतिमा को
शुद्ध करना। गुणारोपण विधि- तीर्थंकर के गुणों का संकल्प करना। मंत्र न्यास-प्रतिमा के विभिन्न अंगों पर चंदन केशर से बीजाक्षरों का लिखना। आचार्यों ने 15 स्थानों पर बीजाक्षर लिखने का निर्देश किया, लेकिन पं. आशाधर
जी ने प्रतिमा में 49 स्थानों पर वर्ण बीजाक्षरों के लिखने का उल्लेख किया है। 5. मुखपट विधि- कंकड़ बंधन, काण्डक स्थापन नैवेद्य, दीप, धूप, फल, यव,
पंचवर्ण, इशु, वलिवर्तिका, स्वर्णकलश, पुष्पांजलि, मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन की क्रिया मंत्रोच्चार पूर्वक करने का विधान दिया गया है। इसके बाद पंचकल्याणक रोपण की क्रिया को सम्पन्न करते हुए कर्जन्वयादि की सप्त क्रियाएं करने के बाद केवलज्ञान प्रगट होता है। गर्भाधान आदि 16 क्रियाओं के संस्कार के लिए प्रत्येक विधि में पृथक्-पृथक् यंत्राभिषेक पूजन एवं तद्रूप विविध मंत्र पाठों का जाप प्रतिमा के समक्ष आवश्यक है। दीक्षा संस्कार के पूर्व दीक्षान्वय की 48
क्रियाएं प्रतिमा में संस्कारित करना चाहिए। सूरिमंत्र विधान
प्रतिमा में सूरि मंत्र देने का विधान पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत प्रतिष्ठा ग्रंथों में कहीं भी नहीं दिया है। सूरि मंत्र क्या है? कैसा है? प्रतिमा में कैसे सूरिमंत्र देना चाहिए। इसका क्या विधि-विधान है? ऐसी जानकारी किसी पर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथ में देखने में नहीं आई। दक्षिण भारत में तो आज भी प्रतिमा में सूरि मंत्र देने की परम्परा नहीं है। सूरि मंत्र देने का प्रथम संकेत वि. सं. 1042-1053 में आचार्य जयसेन ने अपने प्रतिष्ठा ग्रंथ में दिया है। "अथ सरि मंत्र"ऐसा लिखकर आगे जो मंत्र लिखा है वह यह है- ऊँ ह्रीं णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरीयाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहणं चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साह मंगलं केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्ध लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा चत्तारि सरणं पव्वज्जामि अरिहंते सरणं पव्वज्जामि सिद्धे सरणं पव्वज्जामि साहू सरणं पव्वज्जामि केवलि पण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि क्रों ह्रीं स्वाहा।
इस सूरिमंत्र को ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जी ने अपने संग्रह प्रतिष्ठासार में सूरिमंत्र दिया है पं. गुलाबचंदजी ने अपने प्रतिष्ठा संग्रह ग्रंथ प्रतिष्ठा रत्नाकर में पं. मन्नूलाल
ष्ठाचार्य की डायरी से संग्रहीत कर लिखा लेकिन वह ब्र. सीतलप्रसाद की यथावत नकल है।
आचार्य जयसेन के पूर्व एवं परावर्ती आचार्यों ने कहीं भी किसी प्रकार के सूरिमंत्र का उल्लेख अपने ग्रंथों में नहीं किया। प्राण प्रतिष्ठा मंत्र भी परवर्ती विद्वानों ने अपने संग्रहीत ग्रंथों में जो सूरिमंत्र लिखे हैं वह विभिन्न प्रकार के हैं जैसे प्रतिष्ठादर्पण में गणधराचार्य श्री कुन्थसागरजी ने लिखा- "ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः अ सि आ उसा अर्ह ऊँ
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