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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
कि इस प्रतिष्ठा ग्रंथ की रचना मात्र 2 दिन में ही की थी इस प्रतिष्ठा ग्रंथ का प्रचार उत्तर भारत में है। वि. सं. 1292-1333 के मध्य आचार्य ब्रह्मदेव हुए इन्होंने प्रतिष्ठा तिलक नामक ग्रंथ की रचना की जो शुद्ध संस्कृत भाषा में है। और प्रतिमा प्रतिष्ठा का एक विशिष्ट हृदयग्राही वर्णन इसमें लिखा है। इसी समय वि. सम्वत् 1173-1243 में आचार्य कल्प पं. आशाधर जी प्रणीत प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रंथ प्रकाश में आया। समय और काल की परिस्थिति के अनुसार इस प्रतिष्ठा ग्रंथ में अनेक देवी देवताओं की उपासना का प्रसंग आया है। इसी समय वि. सं. 1200 में नरेन्द्रसेनाचार्य हुए इन्होंने 'प्रतिष्ठादीपक' नामक ग्रंथ की रचना की। यह जयसेन आचार्य के वंशज थे। प्रस्तुत ग्रंथ में मात्र 350 श्लोक हैं। मूर्ति मंदिर निर्माण में तिथि नक्षत्र योग आदि का अच्छा वर्णन किया है। ग्रंथ में स्थाप्य, स्थापक और स्थापना का वर्णन है। इसके अलावा आचार्य हस्तिमल्ल जी द्वारा रचित जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय, वि. सं. 1376 आचार्य माघनदि कृत प्रतिष्ठाकल्प, आचार्य कुमुदचन्द्राचार्य द्वारा प्रणीत जिनसंहिता, वि. सं. 1292/1333 में आचार्य ब्रह्मदेव रचित प्रतिष्ठा-सारोद्धार, आचार्य अकलंक भट्टारक के प्रतिष्ठा कल्प ग्रंथ एवं राजकीर्ति भट्टारक प्रणीत प्रतिष्ठादर्श ग्रंथ भी देखने में आए जो संक्षिप्त और सामान्यतः प्रतिष्ठा प्रकरण की साकारता में लिखित परम्परागत निर्देशों से युक्त हैं।
इन वर्णित सभी आचार्यों ने प्रतिमा और उसकी रचना संस्कार शुद्धि के जो निर्देश मंत्र और आराधन विधियाँ वर्णित की हैं, उनसे प्रतिमा प्रतिष्ठा की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है।
प्रतिमा प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है कि प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होना चाहिए। शुद्ध से तात्पर्य यदि पाषाण की प्रतिमा है तो एक ही पत्थर में जिसमें कहीं जोड़ न हो, पत्थर में चटक, दराज, भदरंगता, दाग-धब्बे न हो। साथ ही वीतराग मुद्रा में स्वात्म सुख की जो मुस्कान होती है उसकी झलक मुख मुद्रा पर होना आवश्यक है। इसी को वीतराग मुस्कान कहते हैं। मुस्कान के दो रूप होते हैं एक इन्द्रियजन्य सुख में जो मुस्कान आती है उसमें ओंठों का फैलना खुलना या ऊपर उठना होता है। लेकिन आत्मोपलब्धि या आत्मगुणों के अभ्युदय में जो अन्तर में आत्म आनंद की अनुभूति होती है उसकी आभा समग्र मुखमण्डल पर व्याप्त होती है। ऐसी मुख मुद्रा के साथ प्रतिमा की दो अवस्थाएं होती हैं। प्रथम पद्मासन और दूसरी खड्गासन। ऊपर वर्णित नाप अनुसार निर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा करना चाहिए। प्रतिमा की संस्कार शुद्धि
प्रतिमा को प्रतिष्ठा तथा संस्कार शुद्धि के लिए निर्मित वेदी के ईशान कोण में स्थापित करना चाहिए। और 6 प्रकार की शुद्धि का विधान हमारे आचार्यों ने प्रतिपादित किया है। उसे सविधि सम्पन्न करें1. आकार प्रोक्षण विधि- सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा तीर्थ मिट्टी से प्रतिमा पर लेप
करना।
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