________________
सूरिमंत्र और उसकी महत्ता
को प्राप्त कराता है। अतः जीव के कल्याण में संस्कार का ही सर्वोपरि महत्व है। धवला ग्रंथ पुस्तक 1 खण्ड 4 पृष्ठ 82 में भगवंत पुष्पदंत भूतबली स्वामी ने लिखा है कि चार प्रकार की प्रज्ञाओं में जन्मान्तर में चार प्रकार की निर्मल बुद्धि के बल से विनय पूर्वक 12 अंगों का अवधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्य में उत्पन्न होने पर इस भव में पढ़ने सुनने व पूंछने आदि के व्यापार से रहित जीव की प्रज्ञा औत्पात्तिकी कहलाती है।
361
तत्वार्थसार ग्रंथ में जीवाधिकार पृष्ठ 45 में धवला की उपर्युक्त वर्णित कथनी की पुष्टि करते हुए आचार्य भगवन लिखते हैं "नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है वहाँ पूर्व भव में धारण किए हुए तत्वार्थ ज्ञान के संस्कार के बल से सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होती है।" इसी प्रकार आचार्यकल्प टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ के पृष्ठ 283 पर लिखते हैं कि इस भव में अभ्यास कर अगली पर्याय तिर्यच आदि में भी जाय तो वहाँ संस्कार के बल से देव शास्त्र गुरु के बिना भी सम्यक्त्व हो जाय।
" स्वाध्याय एव तपः " की बात पूर्व से ही हमारे आगम आचार्य भव्यों को सम्बोधते आए हैं। स्वाध्याय का संस्कार केवलज्ञान होने तक सहकारी होता है। लोक में जीव के आत्महित में यह सर्वोपरि है। द्रव्यसंग्रह ग्रंथ की टीका में पृष्ठ 159/160 पर लिखा है कि सम्यकदृष्टि शुद्धात्म भावना भाने में असमर्थ होता है। तब वह परम भक्ति करता है पश्चात् विदेहों में जाकर समवशरण को देखता है पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान के संस्कार के बल से मोह नहीं करता और दीक्षा धारण कर मोक्ष पाता है। जैनागम ग्रंथों में वर्णित इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि मनुष्य भव के सम्यक् संस्कार एवं स्वाध्याय उसे मोक्ष तक पहुंचने में पूर्ण सहकारी हैं। यह कथन जीव द्रव्य के संस्कारों का है। प्रतिमा प्रतिष्ठा निर्देश
Jain Education International
पंचसंग्रह ग्रंथ में धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा, प्रतिष्ठा इन सभी को एकार्थ वाची कहा गया है जिनमें विनाश बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि प्रतिष्ठा है। प्रतिमा प्रतिष्ठा का विधान सर्व प्रथम आचार्य नेमिचन्द्र देव ने अपने प्रतिष्ठातिलक नामा ग्रंथ में किया है। आचार्य नेमिचन्द्र देव के गुरु आचार्य अभयचन्द्र और आचार्य विजय कीर्ति थे इनके प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ का प्रचार दक्षिण भारत में व्यापकता के साथ है। यह ग्रंथ विक्रम सम्वत् 950 से 1020 के मध्य रचा गया है। आचार्य नेमिचन्द्रदेव के शिष्य आचार्य वसुनन्दि हुए इन्होंने प्राकृत भाषा में उपासकाध्ययन श्रावकाचार नाम ग्रंथ की रचना की उसी के अन्तर्गत प्रतिष्ठा विधान का वर्णन संक्षिप्त रूप में संस्कृत भाषा में किया जो महत्वपूर्ण है। पश्चात् आचार्य इन्द्रनन्दि महाराज ने विक्रमसम्वत् 10/11 वीं शताब्दी में अपने प्रतिष्ठा ग्रंथ में प्रतिमा प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा और शुद्धि विधान का वर्णन किया है। लगभग इसी समय सम्वत् 1042 1053 में आचार्य श्री वसुविन्दु अपरनाम जयसेनाचार्य जी ने एक स्वतंत्र प्रतिष्ठा ग्रंथ की रचना की, जिसमें 926 श्लोक हैं। प्रतिमा प्रतिष्ठा का यह प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। श्री जयसेन स्वामी भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। कहा जाता है
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org