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________________ 360 स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ उल्लेख है। जिस प्रमाण में जिनबिम्ब का निर्माण करना हो उस प्रमाण कागज में अर्द्ध रेखा करें। उसमें 108 भाग प्रमाण रेखायें करें। उसमें 2 भाग प्रमाण मुख, 4 भाग प्रमाण ग्रीवा, उससे 12 भाग प्रमाण हृदय, हृदय से नाभि तक 12 भाग प्रमाण, नाभि से लिंग का मूल भाग पर्यंत 12 भाग प्रमाण, लिंग के मूल भाग से गोड़ा तक 24 भाग प्रमाण जांघ करें। जांघ के अंत में 4 भाग प्रमाण गोंडा करें, गोंडा से टिकून्या 24 भाग प्रमाण पीड़ी बनायें, टिकून्या से पादमूल पर्यंत 4 भाग पर्यंत एड़ी करें। इस प्रकार 108 भागों में सम्पूर्ण शरीर की रचना 9 विभागों में बनायें। यह विभाग मस्तक के केशों से लेकर चरण तल पर्यंत हैं। मस्तक के ऊपर गोलाई केश से युक्त शोभनीक करें। चरण तल के नीचे आसन रूप चौकी बनाना चाहिए। 3. जीव तथा प्रतिमा का संस्कार और उसका प्रभाव जिनेन्द्र प्रतिमा को मंत्राच्चार पूर्वक सविधि संस्कार करने से अजीव द्रव्य भी इतना प्रभावी और सातिशय बन जाता है। जिसकी सानिध्यता से जीव द्रव्य भी अपना उपकार करने में पूर्ण सक्षम हो जाता है। प्रतिमा दर्शन से स्वात्म परिणामों में विशुद्धि एवं संसार की असारता का बोध जीव को होता है उसी हेतु की साकारता के लिये तीर्थकर के काल में भी पूर्ववर्ती तीर्थकर की प्रतिकृति रूप प्रतिमायें निर्मित कर मंत्रोच्चार पूर्वक उनका संस्कार किया जाता रहा है। वास्त सर्वेक्षण से प्राप्त प्रतीक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रायः देखा गया है कि व्यक्ति के जीवन की शुभ और अशुभ प्रवृत्ति उसके संस्कारों के अधीन हैं। जिनमें से कुछ वह पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ इसी भव में संगति और शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिये गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्धि संस्कार उत्पन्न करने के लिए संस्कार क्रिया का भी विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यंत यथावसर श्रावक को जिनेन्द्र पूजन एवं मंत्र संस्कार सहित 53 प्रकार की क्रियाओं का वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित है। इन क्रियाओं की से बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशद्धि होते हए अर्हत दशा तक पहंचकर निर्वाण सम्पत्ति प्राप्त करने की पात्रता पा लेता है। सिद्धिविनिश्चय ग्रंथ के प्रथम अध्याय में लिखा "वस्तुस्वभावोयं यत् संस्कारः स्मृतिबीजमादधीत्" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही संस्कार है जिसको स्मृति का बीज माना गया है। पंचास्तिकाय ग्रंथ की तात्पर्य वृत्ति में पृष्ठ 251 पर लिखा है - जो निज परम आत्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्मसंस्कार है। आत्म संस्कार ही जीव की कर्म श्रृंखला को निर्मूल करने में साधक है और यही उसकी चरमोपलब्धि है। श्री वट्टकेर आचार्य प्रणीत मूलाचार ग्रंथ में पृष्ठ 286 पर लिखा है कि पठित ज्ञान के संस्कार जीव के साथ जाते हैं। विनय से पढ़ा हुआ शास्त्र किसी समय प्रभाव से विस्मृत हो जाय तो भी वह अन्य जन्म में स्मरण हो जाता है। संस्कार रहता है और क्रम से केवलज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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